श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना  “बहकते कदम दर कदम…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 96 ☆

☆ बहकते कदम दर कदम… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’  

जिधर देखो उधर बस हंगामें  की स्थिति नज़र आ रही है। कभी पिक्चर, कभी शोभा यात्रा, कभी अजान, कभी चालीसा। कोई भी कहीं थमना नहीं चाहता। बस भागम- भाग में अशांति का वातारण बनाते हुए दोषारोपण की राजनीति हो रही है। ऐसा लगता है मानो सारे निर्णय पलक झपकते ही होने लगे हैं। पहले तो वर्षों बीत जाते थे, फाइल खिसकने में तब कहीं जाकर कोर्ट से डेट मिलती वो भी इलास्टिक की तरह खींच- तान का शिकार होकर कई बार टूट कर अपना अस्तित्व तक खो देती थी। 

शायद यही सब वजह है लोगों के इतना अशांत होने की। शांति और सन्नाटा दो अलग- अलग चीजे हैं। एक में सुकून की आहट छुपी होती है तो दूसरे में अनचाहा डर समाहित होता है। एक छोर को  दूसरे छोर से मिलाने की होड़ में हम लोग अपने -अपने दायित्व भूलकर अधिकारों की माँग जब -तब उठाते हुए देखे जा सकते हैं। सही भी है लोगों ने हर चीज का इतना इंतजार किया है कि अब वे बात- बात पर भड़कने लगे हैं। इसी संदर्भ में एक किस्सा याद आता है।

पिक्चर देखकर  लौटते हुए चार दोस्त आपस में बात- चीत करते हुए चले आ रहे थे।  पहले ने कहा नाम देखकर ही पता चल जाता है कि पिक्चर अच्छी होगी या नहीं, दूसरे ने कहा इतंजार नाम था  बेचारे दर्शक इंतजार ही करते रहे गए, तीसरे ने कहा गीत तो अच्छे थे हीरोइन भी अच्छी होती तो बात बन जाती। चौथे ने कहा  अधूरी सी लग  रही थी फिल्म इसका मतलब इंतजार करो, आगे भाग दो भी आयेगा, तब सारी मनोकामनाएँ पूरी हो जायेंगी।

क्या यार? यही तो मुश्किल है, पहले पहली तारीख़ का इंतजार करो फिर फ़िल्म के पहले शो का पहला टिकिट, फिर दोस्तों का,फिर फिल्म के पसंद आने का फिर इसके रिटर्न्स इंतजार 2 का बस यही  जिंदगी है? ऐसा लगने लगा है।

दूसरे ने कहा तू  इतने से ही घबरा गया अभी तो बहुत से इम्तहान बाकी हैं,तीसरे ने कहा बिल्कुल वैसे ही जैसे पिक्चर अभी  बाकी है, चौथे ने दार्शनिक अंदाज़ में कहा इंतजार का फल मीठा होता है सखे।

चारो  दोस्त खिलखिला कर हँस पड़े और गुनगुनाते हुए  चल  दिए …..

इन्तहा हो गयी, इंतजार की,

आयी न  कुछ ख़बर मेरे…भविष्य की।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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