श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी  की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक संस्मरण “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी”।)  

☆ संस्मरण # 135 ☆ “अंखियों के झरोखे से – कथाकार ज्ञानरंजन जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

उन दिनों पहल पत्रिका के संपादक एवं कहानी जगत के जबरदस्त हस्ताक्षर ज्ञान रंजन जी हमारे पड़ोसी थे। कलाई में आज तक घड़ी न पहनने वाले ज्ञान जी समय के बड़े पाबंद, घड़ी भले फेल हो जाए पर वे समय को पकड़ कर चलते हैं।अतिथि सत्कार और अपनेपन का भाव तो कोई उनसे सीखे। बीच बीच में टाइपराइटर में खटर पटर करते फिर लुंगी लपेटकर छत में कूद फांद करने लगते।

एक दिन रात्रि को लगभग दस बजे कुम्हार मोहल्ले की तरफ से बीस बाईस बरस की दो लड़कियां भागती हुईं  सीढ़ी में आ छुपीं, सीढ़ी से लगा हुआ ज्ञान जी के घर का दरवाजा खुलता था, ज्ञान जी हड़बड़ी में बाहर आए, दोनों लड़कियां हाथ जोड़कर रोती हुई बोलीं – साहब हमें बचा लो, कुम्हार मोहल्ले के कुछ लड़के अपहरण कर हमारी इज्जत लूटना चाह रहे हैं। लड़कियों ने बताया कि- वे रिश्तेदारी में हुई गमी में आयीं थी और कुम्हार मोहल्ले होते हुए अपने घरों को लौट रही थीं कि रात्रि का फायदा उठा कर वे हमें पकड़ना चाहते थे इसीलिए यहां घुस आयीं। पुलिस का तो कोई भरोसा था नहीं, वो भी रात के वक्त दो जवान लड़कियों को पुलिस वालों के जिम्मे करना… सो ज्ञान जी ने तुरंत सीढ़ी के ऊपर कमरे नुमा जगह में उन लड़कियों को जाने कहा… ठंड का मौसम था अपने घर से कंबल चादर लाकर उनका ओढ़ने बिछाने का इंतजाम किया और भाभी जी से गरमागरम खाना बनवा कर उन्हें दिया।  रात भर एक पिता की भांति दौड़ दौड़कर गैलरी से सीढ़ी तक नजर गड़ाए जागते रहे।  फिर सुबह चाय पिलाकर उन्हें सुरक्षित घर की तरफ रवाना किया और फिर तैयार होकर कालेज चले गए। वे बड़े साहित्यकार हैं पर मानवता की सेवा उन्होंने रात भर फेंस के इधर और उधर नजरें गड़ाए दो लड़कियों की इज्जत की रक्षा में जी जान लगा दी फिर समय पर कालेज पहुंच गए। रात भर जागे फिर कालेज से लौटकर टाइपराइटर में खटर पटर करते “पहल” के काम में लग गए, कलाई में घड़ी भले नहीं थी पर समय को पकड़ कर लुंगी बांध वे छत पर फिर से कूदा फांदी में लग गए… हम अँखियों के झरोखों से देखते रह गए…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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Shyam Khaparde

बहुत ही मार्मिक संस्मरण, आप के प्रस्तुतीकरण की शैली लाजवाब है, बधाई हो भाई