डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय व्यंग्य ‘लाउडस्पीकर और हम’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – लाउडस्पीकर और हम ☆
लाउडस्पीकर की ईजाद इसलिए हुई थी कि दूर बैठा कोई आदमी यदि बात को सुनना चाहे जो वंचित न रहे। लेकिन अब लाउडस्पीकर का प्रयोग ऐसी बातों को हमारे कान में ठूँसने के लिए होता है जिन्हें हम सुनना नहीं चाहते।
दिन के कोलाहल में तो हम इस ज़ुल्म से बच लेते हैं, लेकिन रात को बचने का कोई रास्ता नहीं रहता। रात को शहर सन्नाटे में होता है। दो मील दूर की आवाज़ भी साफ सुनाई देती है। हम आधे नींद की आगोश में होते हैं। तभी वह शुरू होता है— ‘ठक ठक’ ‘हेलो माइक टेस्टिंग, वन टू थ्री फोर।’
और इसके बाद, ‘हाज़रीन, अब मैं आपके सामने शहर के मशहूर गायक तानसेन को पेश करता हूं, जिनकी आवाज़ में मुकेश की खनक, रफी की लोच और तलत का सोज़ है। तो सुनिए हाज़रीन, मशहूर गायक तानसेन को।’
मशहूर गायक तानसेन आते हैं और खाँसने खूँसने के बाद मुकेश, रफी और तलत की सामूहिक कब्र खोदना शुरू कर देते हैं। हम अपनी खटिया पर छटपटाते हैं क्योंकि बच निकलने का कोई रास्ता नहीं होता। मेरे जैसे लोग जिन्हें थोड़ा सुर ताल का ज्ञान है और भी ज्यादा कष्ट भोगते हैं।
उद्घोषक महोदय ऐसे उतार-चढ़ाव और ऐंठी ज़ुबान में घोषणा करते हैं जैसे अमीन सायानी के असली वारिस वे ही हों।
किसी रात को पुरुष स्वरों में कोई सोहर शुरू हो जाता है। खासे बेसुरे कंठ हैं लेकिन शुरू हो जाते हैं तो खत्म ही नहीं होते। जच्चा-बच्चा को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ, लेकिन सोचता हूँ भगवान ने कान दिये तो कान के ढक्कन क्यों न दिये? कान को दुनिया का कचरादान बना दिया।
रात को गाने वाला बड़े फायदे में रहता है। दिन को तो शायद उसे आठ श्रोता भी न मिलें, लेकिन रात को उसे अपनी-अपनी खटिया पर अवश पड़े आठ दस लाख श्रोता मिलते हैं। मैं कल्पना करता हूँ कि इस गायक के सामने कितने श्रोता होंगे? दो चार होंगे? या फिर वह हमीं खटिया वालों को लक्ष्य करके अँधेरे में तीर मार रहा है?
कहीं से ‘हेलो हेलो’ के बाद कोई पाँच छः साल के चिरंजीव गाने लगते हैं—‘ऐं ऐं मेरे अंगने में। ऐं मेरे अंगने में।’ फिर माइक पर कुछ झगड़ा सुनाई पड़ता है— ‘अब हम गायेंगे।’ ‘नहीं, अभी हम गायेंगे।’ फिर कोई दस बारह साल वाली कुछ मोटी आवाज़ शुरू हो जाती है।
कभी किसी लड़की की शरमाती, झिझकती आवाज़। कल्पना कर सकते हैं कि कैसे नाखून से ज़मीन को खुरचते हुए, सिर झुकाये गा रही होगी। ठीक है भई, पिताजी ने लाउडस्पीकर के पैसे दिए होंगे। गाओ, खूब गाओ। सुनने के लिए हम तो हैं ही।
कहीं किसी विदुषी का प्रवचन चल रहा है— ‘ईश्वर में बिलीव किए बिना मुक्ति नहीं मिलेगी। यह माया सब यूज़लेस है। इससे अपने को मुक्त होना है, फ्री होना है। ईश्वर की शरण में आये बिना पीस और हैपीनेस नहीं मिलने वाली। यह बच्चे क्यों डिस्टर्ब कर रहे हैं? बिल्कुल साइलेंट हो जाइए।’
किसी कोने में कोई नेता गरजते हैं। सब वही बातें जिन्हें सुनते सुनते हम बौरा गये। उन शब्दों के अर्थ घिस गये, लेकिन उन्हीं सिक्कों को चला रहे हैं। विपक्ष की खिंचाई कर रहे हैं, चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं।
यह सारे भयानक स्वर हमारे कानों से टकरा रहे हैं, नींद हराम कर रहे हैं, चैन हराम कर रहे हैं। समझना मुश्किल है कि ये स्वर शहर के किस कोने से आते हैं।
इस अत्याचार से यह साबित होता है कि लाउडस्पीकर सिर्फ चोंगा ही नहीं है, वह एक हथियार भी है। जिस को परेशान करना हो उसके घर की तरफ लाउडस्पीकर का चोंगा घुमा दो और दो दिन तक चौबीस घंटे चालू रखो। यंत्रणा देने का यह नायाब तरीका है। चोंगे का शिकार बचकर जा भी कहाँ सकता है? ‘हम हाले दिल सुनाएंगे, सुनिए कि न सुनिए।’
हमारी कोई खुशी लाउडस्पीकर बजाये बिना पूरी नहीं होती। भाषण के लिए लाउडस्पीकर अनिवार्य है, भले ही कमरा इतना छोटा हो कि श्रोताओं से फुसफुसा कर भी बात की जा सके। दूसरी तरफ ऐसे शूरवीर हैं जो आठवीं संतान के जन्म पर भी भोंगा लगा लेते हैं।
इसलिए लाउडस्पीकर के अत्याचार से निजात पाना आसान नहीं लगता। सुनते रहो और दाँत पीसते रहो। पीसते पीसते दाँत टूट जाएंगे। इटली में पीसा की झुकती हुई मीनार के आसपास मोटर के हॉर्न बजाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था ताकि शोर के दबाव से मीनार और न झुक जाए। लेकिन यहाँ आवाज़ें मीनार से ज्यादा कीमती आदमी की दुर्गति कर रही हैं।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈