डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है एक सामयिक बेबाक रचना “प्रत्याशी मीमांसा……”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 18☆
☆ प्रत्याशी मीमांसा…… ☆
वोट डालना धर्म हमारा
और कुकर्म तुम्हारे हैं
तुम राजा बन गए
वोट देकर तो हम ही हारे हैं।
एक चोर इक डाकू है
ठग एक, एक है व्यभिचारी
एक लुटेरा, हिंसक है इक
और एक अत्याचारी,
ये हैं उम्मीदवार तंत्र के
पंजीकृत ये सारे हैं
तुम राजा…………।
चापलूस है कोई तो
कोई धन का सौदागर है
कोई है आतंकी इनमें
तो कोई बाजीगर है,
वोट इन्हीं को है देना
ये खुद के खेवनहारे हैं
तुम राजा………….।
इनमें हैं मसखरे कई
कोई नौटंकी वाले हैं
कुछ ने पहन रखी ऊपर
शेरों सी नकली खालें है,
संत महंत, माफ़ियाओं के
हिस्से न्यारे-न्यारे हैं
तुम राजा……………।
कुछ राजा कुछ संत्री-मंत्री
इनमें कुछ षड्यंत्री हैं
हैं रागी तो कुछ बैरागी
कुछ औघड़िये तंत्री हैं,
बाना जोगी, सुविधाभोगी
खबरी ये हरकारे हैं
तुम राजा…………..।
इनमें राष्ट्र विरोधी कुछ
कुछ काले धंधे वाले हैं
कुछ एजेण्ट विदेशों के
कुछ के अपने मदिरालै हैं,
काले पैसों के इस दंगल में
कुछ अलग नजारे हैं
तुम राजा…………….।
नेताओं के नाती-पोते
कुछ के बेटे बेटी हैं
भरे पेट वालों के ही तो
कब्जे में मतपेटी है,
भूखे नंगे बेबस जन के
बनते सर्जनहारे हैं
तुम राजा………….।
जिनके चेहरे हैं उजले
वे सब गूंगे औ’ बहरे हैं
साफ छबि वालों के मुंह पर
आदर्शों के पहरे हैं,
जब्त जमानत उनकी
जो सीधे सादे बेचारे है
तुम राजा बन गए
वोट देकर तो हम ही हारे हैं।।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 9893266014