श्री संतोष नेमा “संतोष”
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं मनाली यात्रा में रचित “संतोष के दोहे … ”। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 124 ☆
☆ मनाली यात्रा … संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा ☆
पेड़ उचककर कह रहा, मुझसे कौन महान
गिरि के सीने में खड़ा, जाने सकल जहान।।
मुझसे ही मौसम चले, देता सर्द बयार
मैं तूफां को रोकता, मुझसे करिए प्यार।।
चीड़ समुन्नत नीलगिरि, शीशम साल चिनार
पर्वत की शोभा यही, मौसम के हकदार।।
वृक्ष बिना सूना लगे, गिरि का विस्तृत भाल
जीवन औषधि दे यही, करता मालामाल।।
शैल ऊँचाई दे रहा, पर एकाकी ठाँव
पेड़ों की यह संपदा, देती शीतल छाँव।।
कार्बन अवशोषित करें, हमें हवा दें शुद्ध
वाहक वर्षा के यही, समझें सभी प्रबुद्ध।।
जीवों को देते शरण, करें खूब उपकार
पेड़ लगाकर नित नए, करें प्रकृति से प्यार।।
खूब मिले “संतोष” धन, चलो प्रकृति की ओर
पेड़ लगाकर ही मिले, हमें सुहानी भोर।।
© संतोष कुमार नेमा “संतोष”
सर्वाधिकार सुरक्षित