श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 36 – मनोज के दोहे ☆
(पनघट, कुआँ, जेठ, ताल, पंछी)
पनघट बिछुड़े गाँव से, टूटा घर संवाद।
सुख-दुख की टूटी कड़ी, घर-घर में अवसाद।।
कुआँ नहीं अब शहर में, ट्यूबबैल हैं गाँव।
पीने को पानी नहीं, दिखती कहीं न छाँव।।
जेठ दुपहरी की तपन, दिन हो चाहे रात।
उमस बढ़ाती जा रही, पहुँचाती आघात।।
ताल सभी बेहाल अब, नदी गई है सूख।
तरुवर झरकर ठूँठ से, नहीं रहे वे रूख।।
प्रकृति हुई अब बावली, बदला है परिवेश।
पंछी का कलरव नहीं, चले गए परदेश।।
© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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