डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख संपन्नता मन की । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 136 ☆
☆ संपन्नता मन की ☆
संपन्नता मन की अच्छी होती है; धन की नहीं, क्योंकि धन की संपन्नता अहंकार देती है और मन की संपन्नता संस्कार प्रदान करती है। शायद इसलिए ही धनी लोगों में अहंनिष्ठता के कारण ही मानवता नहीं होती। वे केवल हृदय से ही निर्मम नहीं होते; उनमें औचित्य-अनौचित्य व अच्छे-बुरे की परख भी नहीं होती। वे न तो दूसरों की भावनाओं को समझते हैं; न ही उन्हें सम्मान देना चाहते हैं। सो! वे उन्हें हेय समझ उनकी उपेक्षा करते हैं और हर पल नीचा दिखाने में प्रयासरत रहते हैं। इसलिए दैवीय गुणों से संपन्न व्यक्ति को ही जग में ही नहीं; जन-मानस में भी मान-सम्मान मिलता है। लोग उससे प्रेम करते हैं और उसके मुख से नि:सृत वाणी को सुनना पसंद करते हैं, क्योंकि वह जो भी कहता व करता है; नि:स्वार्थ भाव से करता है तथा उसकी कथनी व करनी में अंतर नहीं होता। वे भगवद्गीता के निष्काम कर्म में विश्वास करते हैं। जिस प्रकार वृक्ष अपना फल नहीं खाते; पथिक को छाया व सबको फूल-फल देते हैं। बादल भी बरस कर प्यासी धरती माँ की प्यास बुझाते हैं और अपना जल तक भी ग्रहण नहीं करते। इसलिए मानव को भी परहिताय व निष्काम कर्म करने चाहिए। ‘अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी, ऐ दिल ज़माने के लिए’ से भी यही परोपकार का भाव प्रकट होता है। मुझे स्मरण हो रहा है एक प्रसंग– जब मीरा जी मस्ती में भजन कर रही थी, तो वहां उपस्थित एक संगीतज्ञ ने उससे राग के ग़लत प्रयोग की बात कही। इस पर उसने उत्तर दिया कि वह अनुराग से कृष्ण के लिए गाती है; दुनिया के लिए नहीं। इसलिए उसे राग की परवाह नहीं है।
‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ ब्रह्म ही केवल सत्य है। उसके सिवाय इस संसार में सब मिथ्या है, परंतु माया के कारण ही वह सत्य भासता है। शरतचंद्र जी का यह कथन कि ‘मित्रता का स्थान यदि कहीं है, तो वह मनुष्य के मन को छोड़कर कहीं नहीं है’ से स्पष्ट होता है कि मानव ही मानवता का सत्पात्र होता है। परंतु उसके मन की थाह पाना आसान नहीं। उसके मन में कुछ और होता है और ज़ुबाँ पर कुछ और होता है। मन चंचल है, गतिशील है और वह पल भर में तीनों लोगों की यात्रा कर लौट आता है।
‘वैसे आजकल इंसान मुखौटा धारण कर रहता है। उस पर विश्वास करना स्वयं से विश्वासघात करना है।’ दूसरे शब्दों में मन से अधिक छल कोई भी नहीं कर सकता। इसलिए कहा जाता है कि यदि गिरगिट की तरह रंग बदलने वाला कोई है, तो वह इंसान ही है। यही कारण है कि आजकल गिरगिट भी इंसान के सम्मुख शर्मिंदा है, क्योंकि वह उसे पछाड़ आगे निकल गया है। यही दशा साँप की है। काटना उसका स्वभाव है, परंतु वह अपनी जाति के लोगों को पर वार नहीं करता। परंतु मानव तो दूसरे मानव पर जानबूझ कर प्रहार करता है और प्रतिस्पर्द्धा में उसे पछाड़ आगे बढ़ जाना चाहता है। इस स्थिति में वह किसी के प्राण लेने में लेशमात्र भी संकोच नहीं करता। दुष्टता में इंसान सबसे आगे रहता है, क्योंकि वह मन के हाथों की कठपुतली है। अहंनिष्ठ मानव की सोचने-समझने की शक्ति नष्ट हो जाती है और उसे सावन के अंधे की भांति केवल हरा ही हरा दिखाई देता है। वह अपने परिवार के इतर कुछ सोचता ही नहीं और स्वार्थ हित कुछ भी कर गुज़रता है। मानव का दुर्भाग्य है कि वह आजीवन यह नहीं समझ पाता कि उसे सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना है। मेरी स्वरचित पंक्तियाँ ‘यह किराए का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पाएगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे!/खाली हाथ तू जाएगा’ इसी तथ्य को उजागर करती हैं। काश! इंसान उक्त तथ्य को आत्मसात् कर पाता तो संसार में धर्म, जात-पाति व अमीर-गरीब आदि के झगड़े न होते और न ही किसी प्रकार का पारस्परिक वैमनस्य, भय व आशंका मन में उपजती।
‘काश! जीवन परिंदो जैसा होता/ सारा जग अपना आशियां होता।’ यदि मानव के हृदय में संकीर्णता का भाव नहीं होता, तो वे भी अपनी इच्छानुसार संसार में कहीं भी अपना नीड़ बनाते । सो! हमें भी अपनी संतान पर अंकुश न लगाकर उन्हें शुभ संस्कारों से पल्लवित करना चाहिए, ताकि उनका सर्वांगीण विकास हो सके। वे कर्त्तव्यनिष्ठ हों और उनके हृदय में प्रभु के प्रति आस्था, बड़ों के प्रति सम्मान भाव व छोटों के प्रति स्नेह व क्षमा भाव व्याप्त हो। पति-पत्नी में सौहार्द व समर्पण भाव हो और परिजनों में अजनबीपन का एहसास न हो। हमें यह ज्ञान हो कि कर्त्तव्य व अधिकार अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए हमें दूसरों के अधिकारों के प्रति सजग रहना आवश्यक है। हमें समाज में सामंजस्य अथवा सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना हेतू सत्य को शांत भाव से स्वीकारना होगा तथा झूठ व मिथ्या को त्यागना होगा। सत्य अटल व शिव है, कल्याणकारी है, जो सदैव सुंदर व मनभावन होता है, जिसे सब धारण करना चाहते हैं। जब हमारे मन में आत्म-संतोष, दूसरों के प्रति सम्मान व श्रद्धा भाव होगा, तभी जीवन में समन्वय होगा। इसलिए इच्छाओं पर अंकुश लगाना आवश्यक है, क्योंकि आवश्यकताएं पूरी की जा सकती हैं; इच्छाएं नहीं। यदि हमारे कर्म यथोचित होंगे, तभी हमारी इच्छाओं की पूर्ति संभव है।
जीवन में संयम का सर्वश्रेष्ठ स्थान है। जो व्यक्ति काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि पर अंकुश नहीं रख पाता, तो उससे संयम की अपेक्षा करना निराधार है; मात्र कपोल-कल्पना है। महात्मा बुद्ध की यह सोच अत्यंत श्लाघनीय है कि ‘यदि कोई आपका अनादर कर रहा है, तो शांति स्थापित होने तक आपको उस स्थान को नहीं छोड़ना चाहिए।’ सो! आत्म-संयम हेतू वाणी पर नियंत्रण पाना सर्वश्रेष्ठ व सशक्त साधन है। वाणी माधुर्य से मानव पलभर में शत्रु को मित्र बना सकता है और कर्कश व कटु शब्दों का प्रयोग उसे आजीवन शत्रुता में परिवर्तित करने में सक्षम है। यह शब्द ही महाभारत जैसे बड़े-बड़े युद्धों का कारण बनते हैं।
हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है,भले वह चीनी हो व अधिक लाड़-प्यार हो। इसलिए मानव को संयम से व्यवहार करने व अनुशासन में रहने का संदेश दिया गया है। ‘आप दूसरों से वैसा व्यवहार कीजिए, जिसकी आप उनसे अपेक्षा करते हैं, क्योंकि जीवन में वही लौट कर आपके पास आता है’ में दिव्य अनुकरणीय संदेश निहित है। इसलिए बच्चों को शास्त्र ज्ञान, परमात्म तत्व में आस्था व बुज़ुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव संजोने की सीख देनी चाहिए। बच्चे अपने माता-व गुरुजनों का अनुकरण करते हैं तथा जैसा वे देखते हैं, वैसा ही व्यवहार करते हैं। इसलिए हमें फूंक-फूंक कर कदम रखने चाहिए, ताकि हमारे कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर न हों और हमें किसी के सम्मुख नीचा न देखना पड़े। हमें मन का अंधानुकरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि जहाँ वह हमारा पथ-प्रशस्त करता है, वहीं भटकन की स्थिति उत्पन्न करने में भी समर्थ है।
© डा. मुक्ता
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