(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )
आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय कविता – मन के भावो का शब्दो में… ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 164 ☆
कविता – मन के भावो का शब्दो में…
कोमल हृदय तरंगो की, सरगम होती है कविता
शीर्षक के शब्दो को देती, अर्थ सदा पूरी कविता
सजल नयन और तरल हृदय, परपीड़ा से हो जाता है
हम सब में ही छिपा कवि है, बता रही हमको कविता
छंद बद्ध हो या स्वच्छंद हो, अभिव्यक्ति का साधन है
मन के भावो का शब्दो में, सीधा चित्रण है कविता
कोई दृश्य , जिसे देखकर, भी न देख सब पाते हैं
कवि मन को उद्वेलित करता, तब पैदा होती कविता
कवि की उस पीड़ा का मंथन, शब्द चित्र बन जाता है
दृश्य वही देखा अनदेखा, हमको दिखलाती कविता
लेख, कहानी, व्यंग विधायें, लिखने के हथियार बहुत
कम शब्दो में गाते गाते, बात बड़ी कहती कविता
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
मो ७०००३७५७९८
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈