डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक संवेदनशील लघुकथा ‘कसक’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 93 ☆
☆ लघुकथा – कसक ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
कॉलबेल बजी। मैंने दरवाजा खोला, सामने एक वृद्धा खड़ी थीं। कद छोटा, गोल- मटोल, रंग गोरा, माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी, जो उनके चेहरे पर निहायत सलोनापन बिखेर रही थी। कुल मिलाकर सलीके से सिल्क की साड़ी पहने बड़ी प्यारी सी महिला मेरे सामने खड़ी थी। जवानी में निस्संदेह बहुत खूबसूरत रही होंगी। मैंने उनसे घर के अंदर आने का आग्रह किया तो बोलीं – ‘पहले बताओ मेरी कहानी पढ़ोगी तुम? ‘
अरे, आप अंदर तो आइए, बहुत धूप है बाहर – मैंने हंसकर कहा।
सब सोचते होंगे बुढ़िया सठिया गई है। मुझे बचपन से ही लिखना पढ़ना अच्छा लगता है। कुछ ना कुछ लिखती रहती हूँ पर परिवार में मेरे लिखे हुए को कोई पढ़ता ही नहीं। पिता ने मेरी शादी बहुत जल्दी कर दी। सास की डाँट खा- खाकर जवान हुई। फिर पति ने रौब जमाना शुरू कर दिया। बुढ़ापा आया तो बेटा तैयार बैठा है हुकुम चलाने को। पति चल बसे तो मैंने बेटे से कहा – अब किसी की धौंस नहीं सहना,मैं अकेले रहूंगी। सब पागल कहते हैं मुझे कि बुढ़ापे में लड़के के पास नहीं रहती। जीवन कभी अपने मन से जी ही नहीं सकी। अरे भाई, अब तो अपने ढ़ंग से जी लेने दो मुझे।
वह धीरे – धीरे संभलकर चलती हुई अपनेआप ही बोलती जा रही थीं।
मैंने कहा – आराम से बैठकर पानी पी लीजिए, फिर बात करेंगे। गर्मी के कारण उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया था और लगातार बोलने से साँस फूल रही थी। वह सोफे पर पालथी मारकर बैठ गईं और साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछने लगीं। पानी पीकर गहरी साँस लेकर बोलीं – अब तो सुनोगी मेरी बात?
हाँ बिल्कुल, बताइए।
मैं पचहत्तर साल की हूँ। मुझे मालूम है कि मैं बूढ़ी हो गई हूँ पर क्या बूढ़े आदमी की कोई इच्छाएं नहीं होतीं? उसे बस मौत का इंतजार करना चाहिए? और किसी लायक नहीं रह जाता वह? बहुत- सी कविताएं और कहानियां लिखी हैं मैंने। घर में सब मेरा मजाक बनाते हैं, कहते हैं चुपचाप राम – नाम जपो, कविता – कहानी छोड़ो। कंप्यूटरवाले की दुकान पर गई थी कि मुझे कंप्यूटर सिखा दो तो वह बोला माताजी, अपनी उम्र देखो।
मैंने कहा – उम्र को क्या देखना? लिखने पढ़ने की भी कोई उम्र होती है? तुम अपनी फीस से मतलब रखो मेरी उम्र मत देखो। जब उम्र थी तो परिवारवालों ने कुछ करने नहीं दिया। अब करना चाहती हूँ तो उम्र को बीच में लाकर खड़ा कर दो, ना भई !
यह कहानी लिखी है बेटी ! तुम पढ़ना, उन्होंने बड़ी विनम्रता से कागज मेरे सामने रख दिया। मैं उनकी भरी आँखों और भर्राई आवाज को महसूस कर रही थी। मैंने कागज हाथ में ले लिया। अपने ढ़ंग से जिंदगी ना जी पाने की कसक की कहानी उनके चेहरे पर साफ लिखी थी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
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