डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख  ट्यूशन व तलाक़ . यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 137 ☆

☆ ट्यूशन व तलाक़ ☆

जो औरतें शादी के बाद मायके से ट्यूशन लेती हैं; वे औरतें तलाक़ की डिग्री ज़रूर हासिल कर लेती हैं,’ यह कथन कोटिशः सत्य है। आजकल माता-पिता, भाई-बांधवों व अन्य परिजनों के पास उनकी पल-पल की रिपोर्ट दर्ज होती है और वे ससुराल में रहते हुए भी मायके वालों के आदेशों की अनुपालना करती हैं। खाना बनाने से लेकर घर-परिवार की छोटी से छोटी बातों की ख़बर उनकी माता व परिजनों को होती है। आजकल विदाई के समय उसे यह सीख दी जाती है कि उसे वहाँ किसी से दब कर रहने की आवश्यकता नहीं है; सदा सिर उठाकर जीना। हम सब तुम्हारे साथ हैं और उन्हें दिन में तारे दिखला देंगे। वैसे भी वर के परिवारजनों को सीखचों के पीछे धकेलने में समय ही कितना लगता है। उन पर दहेज व घरेलू हिंसा का इल्ज़ाम लगाकर आसानी से निशाना साधा जा सकता है। सो! दूर-दूर के संबंधियों की प्रतिष्ठा भी अकारण दाँव पर लग जाती है और रिश्ते उनके लिए गले की फाँस बन जाते हैं।

इतना ही नहीं, अक्सर वे माता-पिता की इच्छानुसार सारी धन-दौलत व आभूषण एकत्र कर अक्सर अगले दिन ही नये शिकार की तलाश में वहाँ से रुख़्सत हो जाती हैं। जब से महिलाओं के पक्ष में नये कानून बने हैं, वे उनका दुरुपयोग कर प्रतिशोध ले रही हैं। शायद वे वर्षों से सहन कर रही गुलामी व ज़ुल्मों-सितम का प्रतिकार है। पुरुष सत्तात्मक परंपरा के प्रचलन के कारण वे सदियों से ज़ुल्मों-सितम सहन करती आ रही हैं। अब तो वे मी टू की आड़ में अपनी कुंठाओं की  रिपोर्ट दर्ज करा रही हैं। 

महिलाओं को समानता का अधिकार लम्बे समय के संघर्ष के पश्चात् प्राप्त हुआ है। इसलिए अब वे आधी ज़मीन ही नहीं; आधा आसमान भी  चाहती हैं; जिस पर पुरुष वर्ग लम्बे समय से  काबिज़ था। इसलिए वे ग़लत राहों पर चल निकली हैं। चोरी-डकैती, अपहरण आदि उनके शौक हो गए हैं तथा पैसा ऐंठने के लिए वे पुरुषों पर निशाना साधती हैं तथा उन पर अकारण दोषारोपण करना व उनके लिए सामान्य प्रचलन हो गया है। महफ़िल में शराब के पैग लगाना, सिगरेट के क़श लगाना, रेव पार्टियों में सहर्ष प्रतिभागिता करना उनके जीवन का हिस्सा बन गया है। आजकल अक्सर महिलाएं अपने माता- पिता के हाथों की कठपुतली बन इन हादसों को अंजाम दे रही हैं तथा दूसरों का घर फूंक कर तमाशा देखना उनके जीवन का शौक हो गया है।

‘गुरु बिन गति नांहि’ ऐसी महिलाओं के गुरू अक्सर उनके माता-पिता होते हैं, जो उनकी सभी शंकाओं का समाधान कर उन्हें सतत्  विनाश के पद पर अग्रसर होने की सीख देकर उनका पथ प्रशस्त करते हैं। इस प्रकार ऐसी महिलाएं जो अपने मायके की ट्यूशन लेती हैं, उन्हें तलाक़ की डिग्री अवश्य प्राप्त हो जाती है। मुझे एक ऐसी घटना का स्मरण हो रहा है, जिसमें विवाहिता ने चंद घंटे पश्चात् ही तलाक़ ले लिया। विवाह के पश्चात् प्रथम रात्रि को वह पति को छोड़कर चली गई। उसका अपराध केवल यही था कि उसने पत्नी से यह कह दिया कि ‘तुम्हारे बहुत फोन आते हैं। थोड़ी देर आराम कर लो।’ इतना सुनते ही वह अपना आपा खो बैठी और उसे खरी-खोटी सुनाते हुए भोर होने पूर्व ही पति के घर को छोड़कर चली गई।

अक्सर महिलाएं तो यह निश्चय करके ससुराल में कदम रखती हैं कि उन्हें उस घर से पैसा व ज़ेवर आदि बटोर कर वापस लौटना है और वे इसे अंजाम देकर रुख़्सत हो जाती हैं। वैसे भी  आजकल तो हर तीसरी लड़की तलाक़शुदा है। फलत: सिंगल पैरंट का प्रचलन भी बेतहाशा बढ़ रहा है और लड़के ऐसी ज़ालिम महिलाओं के हाथों से तिरस्कृत हो रहे हैं। इतना ही नहीं, वे निर्दोष अपने अभागे माता-पिता सहित कारागार में अपनी ज़िदगी के दिन गिन रहे हैं और उस ज़ुल्म की सज़ा भोग रहे हैं।

पहले माता पिता बचपन से बेटियों को यह शिक्षा देते थे कि ‘पति का घर ही उसका घर होगा और उस घर की चारदीवारी से उसकी अर्थी निकलनी चाहिए। उसे अकेले मायके में आने की स्वतंत्रता नहीं है।’ सो! तलाक़ की नौबत आती ही नहीं थी। वास्तव में तलाक़ की अवधारणा तो विदेशी है। मैरिज के पश्चात् डाइवोरस व निक़ाह के पश्चात् तलाक़ होता है। हमारे यहां तो विवाह के समय एक-दूसरे के लिए सात जन्म तक जीने- मरने की कसमें खाई जाती हैं। परंतु हमें तो पाश्चात्य की जूठन में आनंद आता है। इसलिए हमने ‘हेलो हाय’ ‘मॉम डैड’ व ‘जींस कल्चर’ को सहर्ष अपनाया है। वृद्धाश्रम पद्धति भी उनकी देन है। हमारे यहां तो पूरा विश्व एक परिवार है और ‘अतिथि देवो भव’ का बोलबाला है।

आइए! हम बच्चों को संस्कारित करें उन्हें जीवन मूल्यों का अर्थ समझाएं व ‘सत्यमेव जयते’ का पाठ पढ़ाएं। अपने घर को मंदिर समझ सहर्ष उसमें रहने का संदेश दें, ताकि कोरोना जैसी आपदाओं के आगमन पर उन्हें घर में रहना मुहाल हो। लॉकडाउन जैसी  स्थिति में वे न विचलित हों और न ही डिप्रेशन कि शिकार हों। हम भारतीय संस्कृति का गुणगान करें और बच्चों को सुसंस्कारित करें, ताकि उनकी सोच सकारात्मक हो। वे घर-परिवार की महत्ता को समझें तथा बुजुर्गों का सम्मान करें तथा उनके सान्निध्य में शांति व सुक़ून से रहें। वे अधिकतम समय मोबाइल के साथ में न बिताएं तथा घर-आंगन में दीवारें न पनपने दें। महिलाएं  ससुराल को अपना परिवार अर्थात् मायका समझें, ताकि तलाक़ की नौबत ही न आए। वे एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव से रहें, ताकि  सोलोगैमी अर्थात् सैल्फ मैरिज की आवश्यकता ही न पड़े। 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

#239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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