प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण ग़ज़ल “हिलमिल रहो …”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ काव्य धारा 86 ☆ गजल – हिलमिल रहो … ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
परचम लिये मजहब का जो गरमाये हुये हैं
आवाज लगा लड़ने को जो आये हुये हैं।
उनको समझ नहीं है कि मजहब है किस लिये
कम अक्ल हैं बेवजह तमतमाये हुये हैं।
नफरत से सुलझती नहीं पेचीदगी कोई
यों किसलिये लड़ने को सर उठाये हुये हैं।
मजहब तो हर इन्सान की खुशियों के लिये हैं
ना समझी में अपनों को क्यों भटकाये हुये हैं।
औरों की भी अपनी नजर अपने खयाल हैं
क्यों तंगदिल ओछी नजर अपनाये हुये हैं।
दुनियां बहुत बड़ी है औ’ ऊँचा है आसमान
नजरें जमीन पै ही क्यों गड़ाये हुये है।
फूलों के रंग रूप औ’ खुशबू अलग है पर
हर बाग की रौनक पै सब भरमाये हुये हैं।
मजहब सभी सिखाते है बस एक ही रास्ता
हिल-मिल रहो, दो दिनों को सभी आये हुये हैं।
कुदरत भी यही कहती है-दुख को सुनो-समझो
जीने का हक खुदा से सभी पाये हुये हैं।
इन्सान वो इन्सान का जो तरफदार हो
इन्सानियत पै जुल्म यों क्यों ढाये हुये हैं।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈