श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 143 ☆ दर्शन-प्रदर्शन (3) ☆
जीवन का दर्शन छोड़ प्रदर्शन के मारे मनुष्य की चर्चा आज जारी रखेंगे। लगभग पौने तीन दशक पूर्व हमने मासिक साहित्यिक गोष्ठियाँ आरंभ की। यह अनुष्ठान गत 27 वर्ष से अखंडित चल रहा है। गोष्ठियाँ आरम्भ होने के कुछ समय बाद ही कविता के बड़े मंचों से निमंत्रण आने लगे। इसी प्रक्रिया में एक रचनाकार से परिचय हुआ। वह मंचों पर तो मिलते पर गोष्ठियों से नदारद रहते। एक बार इस विषय पर चर्चा करने पर बोले, ” मैं टेस्ट मैच का खिलाड़ी हो चुका हूँ। लगातार टेस्ट मैच खेल रहा हूँ। ऐसे में रणजी ट्रॉफी क्यों खेलूँ?” उन्हें कोई उत्तर देना अर्थहीन था। ऐसे खिलाड़ियों को समय ही उत्तर देता है। समय के साथ टेस्ट मैच पर वन-डे को प्रधानता दी जाने लगी। फिर टी-20 का ज़माना आया, फिर आईपीएल की चकाचौंध और अब तो कुछ स्थानों पर टी-10 के टूर्नामेंट भी होने लगे हैं।
यह नहीं भूलना चाहिए कि फॉर्म हमेशा नहीं रहता। फॉर्म जाने के बाद खुद को सिद्ध करने का मंच है रणजी ट्रॉफी टूर्नामेंट। यहाँ नयी प्रतिभाएं भी निरंतर आ रही होती हैं। भविष्य में आपको किन-किन से स्वस्थ प्रतियोगिता करनी है, किन-किन के मुकाबले खुद को खड़ा करना है, यह रणजी टूर्नामेंट से ही पता चलता है।
अपने समय के प्रसिद्ध अभिनेता जीतेन्द्र ने एक बार एक साक्षात्कार में कहा था कि हर सुबह जॉगिंग करते समय वह उस समय जो नये और युवा कलाकार आ रहे थे, उन्हें याद किया करते। उन कलाकारों को याद कर, हर नये कलाकार के नाम पर अपनी जॉगिंग 100 मीटर और बढ़ा देते। बकौल उनके उन्हें नये प्रतिस्पर्द्धियों के मुकाबले खुद को फिट रखना था।
अपने आप को फिट रखना है अर्थात निरंतर सीखना है, सीखे हुए को स्मरण रखना है तो बेसिक या आधारभूत को भूलने की गलती कभी मत करना। कहा भी जाता कि ‘बेसिकस् नेवर चेंज।’ रणजी बेसिक है, रणजी आधारभूत है । फॉर्म आएगा, फॉर्म जाएगा पर आधारभूत बनाए रखना, बचाए रखना, आधारभूत का सम्मान अखंडित रखना।
यह भी ध्यान रहे कि जीवन में भी रणजी ट्रॉफी से टेस्ट मैच तक, सब कुछ होता है। एक कोई संस्था/ संस्थान/ व्यक्तित्व ऐसा होता है जो व्यक्ति के उद्भव, विकास और विस्तार में माँ की भूमिका निभाता है। उससे दूर जाना याने फॉर्म जाने के बाद खेल से बाहर हो जाने की आशंका है। कुछ इसी तरह परिवार भी व्यक्ति का आधार है। परिवार में अलग-अलग आर्थिक, सामाजिक, मानसिक स्थिति वाले सदस्य हो सकते हैं। अपने अहंकार, अपने प्रदर्शन-भाव के चलते परिवार से दूर मत चले जाना। तुम्हारा परिवार तुम्हारे उत्थान में मंगलगीत गाता है, तुम्हारे अवसान में भी परिवार ही संबल बनता है।
चित्रपट उद्योग का ही एक और उदाहरण, पचास के दशक के प्रसिद्ध अभिनेता भगवान दादा का है। उन्होंने अपने संघर्ष का आरंभ मुंबई की लालूभाई मेंशन चॉल से किया था। 25 कमरों वाले बंगले में जाने के बाद भी चॉल का कमरा दादा ने बेचा नहीं। विधि का विधान देखिए कि फर्श से अर्श की यात्रा उल्टी घूमी और उन्हें अपने जीवन के अंतिम दिन चॉल के उसी कमरे में बिताने पड़े।
इस विषय के समानांतर चलती अपनी एक कविता साझा कर रहा हूँ-
जब नहीं बचा रहेगा
पाठकों.., अपितु
समर्थकों का प्रशंसागान,
जब आत्ममोह को
घेर लेगी आत्मग्लानि,
आकाश में
उदय हो रहे होंगे
नये नक्षत्र और तारे,
यह तुम्हारा
अवसानकाल होगा,
शुक्लपक्ष का आदि,
कृष्णपक्ष की इति
तक आ पहुँचा होगा,
सोचोगे कि अब
कुछ नहीं बचा
लेकिन तब भी
बची रहेगी कविता,
कविता नित्य है,
शेष सब अनित्य,
कविता शाश्वत है,
शेष सब नश्वर,
अत: गुनो, रचो,
और जियो कविता!
प्रदर्शन से मुक्त होकर अपने-अपने क्षेत्र में, अपने-अपने संदर्भ में कविता में अंतर्निहित दर्शन को जो जी सका, समय साक्षी है कि वही खिलाड़ी लंबे समय तक पूरे फॉर्म में खेल सका।.. इति।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
मोबाइल– 9890122603
संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
अप्रतिम अभिव्यक्ति। मनुष्य को अपनी शुरुआत को नहीं बिसराना चाहिए, वो ही तो उसकी ताकत और शक्ति है जो उसको जीवन में कभी गिरने नहीं देती।