श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत है नवीन पीढ़ी में संस्कारों के अंकुरण हेतु विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “संस्कारों की बुवाई…”। ) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 127 ☆

☆ लघुकथा – संस्कारों की बुवाई 

सत्य प्रकाश और उसकी पत्नी धीरा बहुत ही संस्कारवान और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। एक ही बेटा है तनय वह भी बाहर पढ़ते हुए अपनी पसंद से शादी कर सुखद जीवन बिता रहे थे।

गाँव में सत्य प्रकाश को बहुत चाहते थे क्योंकि उनकी बातें व्यर्थ नहीं होती थी और न ही कभी असत्य का साथ देते थे।

वर्क फ्रॉम होम होने के कारण बेटा बहू अपने पाँच साल के बेटे यश को लेकर घर आए। दादा – दादी के प्यार से यश बहुत खुश हुआ। दिन भर धमाचौकड़ी मचाने वाला बच्चा दादा जी के साथ सुबह से उठकर उनसे अच्छी बातें सुनता, पूजा-पाठ में भी बड़े लगन के साथ रहता और जिज्ञासा वश  दिनभर दादा – दादी से प्रश्न करता रहता।

समय बीतता जा रहा था। उनका भी मन लग गया। बेटा बहु देरी से सो कर उठते थे। आज तनय जल्दी सो कर उठा। तो देखा कि दादा दादी और पोता मिलकर भगवान की आरती कर रहे हैं और बराबरी से मंत्र का उच्चारण उनके साथ उसका बेटा यश भी कर रहा है।

तनय आश्चर्य से देखने लगा बहुत अच्छा सा महसूस किया।

अपने पापा को आरती देकर यश चरण स्पर्श करता है तो तनय  खुशी से झूम उठता है।

और अपने पिताजी की ओर देखने लगता है। सत्य प्रकाश जी कहने लगे… बेटा मैंने संस्कारों की बुवाई कर दिया है। इसे किस तरह बढ़ाना है तैयार करना है यह तुम्हारे ऊपर है।

और हाँ इसका फायदा भी तुम्हें ही मिलेगा।

बरसों बाद आज माँ पिता के चरण स्पर्श कर तनय गले से लग गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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