श्री अरुण कुमार डनायक 

(श्री अरुण कुमार डनायक जी  महात्मा गांधी जी के विचारों केअध्येता हैं. आप का जन्म दमोह जिले के हटा में 15 फरवरी 1958 को हुआ. सागर  विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में स्नातकोत्तर की उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त वे भारतीय स्टेट बैंक में 1980 में भर्ती हुए. बैंक की सेवा से सहायक महाप्रबंधक के पद से सेवानिवृति पश्चात वे  सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए और अनेक रचनात्मक गतिविधियों से संलग्न है. गांधी के विचारों के अध्येता श्री अरुण डनायक जी वर्तमान में गांधी दर्शन को जन जन तक पहुँचाने के  लिए कभी नर्मदा यात्रा पर निकल पड़ते हैं तो कभी विद्यालयों में छात्रों के बीच पहुँच जाते है.

श्री अरुण कुमार डनायक जी ने अपनी सामाजिक सेवा यात्रा को संस्मरणात्मक आलेख के रूप में लिपिबद्ध किया है। आज प्रस्तुत है इस संस्मरणात्मक आलेख श्रृंखला की अगली कड़ी – “निराशा से आशा”)

☆ संस्मरण # 114 – निराशा से आशा – 7 ☆ श्री अरुण कुमार डनायक

अभी तक मैंने आपने उन आदिवासी युवतियों का परिचय करवाया जो माँ सारदा कन्या विद्यापीठ की पूर्व छात्राएं रही हैं लेकिन सभी का जन्म बीसवीं सदी के उतरार्द्ध में हुआ था । द्विवेदी जी, राजेन्द्रग्राम से जिस युवती को मुझसे मिलाने  सेवाश्रम लाए वह इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में जन्मी । आशा देवी बैगा का जन्म तरेरा गाँव में दादूराम बैगा और फगनी बाई के यहाँ 2003 में हुआ और वह 2009 में अपने पिता के साथ विद्यापीठ में भर्ती होने आई। मैंने पूछा पिता तो पढे लिखे नहीं थे फिर उन्हें इस स्कूल के बारे में कैसे पता चला। वह बताती है कि हमारे पड़ोसी की पुत्री इसी स्कूल में पढ़ रही थी और उसे देखकर पिताजी की भी इच्छा मुझे पढ़ाने की हो गई । आशा ने पिता की इच्छा का माँ रखा और जब 2014 में उसने इस विद्यापीठ से पाँचवी की परीक्षा उत्तीर्ण  की तो उसके 83% अंक आए। शिक्षा के प्रति इस बैगा बालिका की रुचि देखकर बाबूजी ने उसका प्रवेश शासकीय कन्या शिक्षा परिसर पुष्पराजगढ़ में करवा दिया और आशा ने फिर एक बार अपनी कर्मठता का लोहा मनवाया । वह उन गिनी चुनी बैगा कन्याओं में से एक बनी जब उसने 2021 में उच्चतर माध्यमिक परीक्षा 73% अंकों के साथ उत्तीर्ण की । आजकल आशा माडर्न नर्सिंग कालेज में बी एससी नर्सिंग की प्रथम वर्ष की छात्रा  है ।  इस निजी महाविद्यालय में उसे सालाना रुपये  60,000/- की फीस चुकानी होती है । गरीब आदिवासी कन्या के लिए यह बड़ी राशि है, लेकिन मध्य प्रदेश सरकार की छात्रवृति से उसे बड़ी मदद मिलती है । सरकार की छात्रवृति प्रवेश शुल्क जमा कर देने के बाद मिलती है लेकिन कालेज प्रबंधन ने उससे मात्र 10,000/- वसूले और प्रवेश दे दिया। जब छात्रवृति मिलेगी तो शेष फीस जमा हो जाएगी।

विद्यापीठ में बिताए अपने सुनहरे दिनों की उसे बहुत याद है । वह बताती है कि जब वह दूसरी कक्षा में पढ़ती थी तब बाबूजी उन लोगों को बिलासपुर घुमाने ले गए थे । बाद के सालों में बाबूजी के प्रयासों से उसने सहपाठिनी आदिवासी बालिकाओं के साथ पचमढ़ी, बनारस और जगन्नाथ पुरी की यात्रा की और पहली बार रेल यात्रा का अनुभव लिया । वह याद करती है कि भोजन सामग्री साथ में जाती और जहां रुकते वहाँ शिक्षक लोग भोजन बनाकर हम बालिकाओं को खिलाते, बाबूजी उस शहर की प्रसिद्ध मिठाई हम लोगों को जरूर खिलाते और विभिन्न स्थलों के बारे में बताते । मैंने उससे पूछा कि ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से क्या लाभ मिला । आशा कहती है कि हम बैगा आदिवासियों ने तो बालपन में केवल आसपास के हाट बाजार ही देखे थे, अधिकांश यात्राएं तो हम लोग पैदल करते थे। गरीबी और अभाव के जीवन ने हम लोगों को दब्बू और भावशून्य बना दिया है लेकिन ऐसे शैक्षणिक प्रवासों से हम नन्ही बालिकाओं का भय दूर हुआ, झिझक कम हुई और एक नया आत्मविश्वास जागा ।

आशा को याद नहीं कि कभी विद्यापीठ में बालिकाओं को दंड दिया गया। वह कहती है कि कम उम्र में हम लोग यहाँ भर्ती होने आए तो बड़ी बहनजी और बाबूजी ने इतना प्रेम व स्नेह दिया कि  माता पिता की याद ही न आई । बाबूजी हम लोगों को सदैव पढ़ाई के लिए प्रेरित करते थे और सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते थे ।  आशा बताती है कि यद्दपि वह केवल पाँच वर्ष विद्यापीठ में पढ़ी लेकिन इस संस्था से लगाव सदैव बना रहा । प्रत्येक वर्ष 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद जयंती पर बाबूजी पुरानी छात्राओं को आमंत्रित करते,आवागमन की व्यवस्था करते और हम लोग उस दिन आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में बढ चढ़कर हिस्सा लेते । 

मैंने आशा से बैगाओं के बारे में पूछा । वह बताती है कि हम लोगों का रहन सहन तो अत्यंत सादा है। जंगल के पास रहने के कारण आवश्यकताएं बहुत सीमित हैं । पेट भरने के लिए कोदो कुटकी और मक्का उगा लेते हैं और इससे बना पेज, पेट भरने के लिए पर्याप्त है । पर्व त्योहारों और शादी विवाह में मंद( मद्य) पीना और नृत्य करना उनकी जिंदगी का मनोरंजन है । लेकिन शिक्षा के प्रचार प्रसार ने अब धीरे धीरे बैगाओं में परिवर्तन लाने शुरू कर दिए हैं । अब बैगा शिकार की अपेक्षा धान और गेंहू जैसे पौष्टिक आहार की ओर आकर्षित हो रहे हैं । वे जंगल की अपेक्षा अब शहर और कस्बे के पास भी बसने लगे हैं । वे बहुत सी कुरीतियों को त्याग रहे हैं । स्वच्छता की भावना बढ़ी है और मंद पीना भी कम हुआ है । जादू टोना तो अभी भी चलता है पर अधिक बीमार होने पर चिकित्सक से परामर्श अवश्य लेते हैं । आशा बताती है कि बाबूजी ने कई बार उसके गाँव में भी चिकित्सा शिविर लगवाया था । वह कहती है कि अब शादी विवाह बालपन में नहीं होते। बैगाओं में गाँजा जैसे नशे का चलन नहीं है और धर्मांतरण भी नहीं है । 

आशा ने एक अच्छी बात यह भी बताई कि उसकी सहपाठियों में सम्मिलित खेतगांव  की जानकी बैगा भी उसी के साथ नर्सिंग कालेज में पढ़ रही है और खाँटी की निवासी चंद्रवती गोंड कला स्नातक बनने की तैयारी कर रही है । मैंने उससे भविष्य की योजना पूछी । वह कहती है कि आगे पढ़ना धनाभाव के कारण संभव नहीं है इसलिए  नर्सिंग स्नातक होने के बाद वह नौकरी की खोज करेगी । नौकरी खोजने में अगर किसी सूदूर शहर में भी जाना पड़े तो चौड़ी नाक, मोटे ओंठ और गोल काली आँखों वाली  आशा में यह आत्मविश्वास मुझे दिखा । गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा का यह कमाल है । शीघ्र  विवाह की वह कदापि इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि पहले आर्थिक सशक्तिकरण हो  और अपने कैरियर में जब वह भलीभाँति सुस्थापित हो जाएगी, तभी विवाह के बारे में सोचेगी । वह माता पिता की अनुमति के बिना अंतरजातीय विवाह की इच्छुक नहीं है । वह कहती है कि बैगाओं में सामाजिक नियंत्रण कठोर है और ऐसे में अंतरजातीय  विवाह को आसानी से मान्यता नहीं मिलती ।

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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