हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ संजय उवाच – #1 ☆ – श्री संजय भारद्वाज
श्री संजय भारद्वाज
(हम श्री संजय भारद्वाज जी के हृदय से आभारी हैं जिन्होने e-abhivyakti के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के हमारे आग्रह को स्वीकार किया। श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के कटु अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमित छाप छोड़ जाते हैं।
अध्यक्ष – हिंदी आंदोलन परिवार
सदस्य – हिंदी अध्ययन मंडल, (बोर्ड ऑफ स्टडीज), पुणे विश्वविद्यालय।
संपादक – हम लोग
पूर्व सदस्य – महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी
ट्रस्टी – जाणीव वृद्धाश्रम, फुलगाँव, पुणे।
बीता, गणना की हुई निर्धारित तारीखें बीतीं। पुराना कैलेंडर अवसान के मुहाने पर खड़े दीये की लौ-सा फड़फड़ाने लगा, उसकी जगह लेने नया कैलेंडर इठलाने लगा।
वर्ष के अंतिम दिन उन संकल्पों को याद करो जो वर्ष के पहले दिन लिए थे। याद आते हैं, यदि हाँ तो उन संकल्पों की पूर्ति की दिशा में कितनी यात्रा हुई? यदि नहीं तो कैलेंडर तो बदलोगे पर बदल कर हासिल क्या कर लोगे?
मनुष्य का अधिकांश जीवन संकल्प लेने और उसे विस्मृत कर देने का श्वेतपत्र है।
वस्तुतः जीवन के लक्ष्यों को छोटे-छोटे उप-लक्ष्यों में बाँटना चाहिए। प्रतिदिन सुबह बिस्तर छोड़ने से पहले उस दिन का उप-लक्ष्य याद करो, पूर्ति की प्रक्रिया निर्धारित करो। रात को बिस्तर पर जाने से पहले उप-लक्ष्य पूर्ति का उत्सव मना सको तो दिन सफल है।
पर्वतारोही इसी तरह चरणबद्ध यात्रा कर बेस कैम्प से एवरेस्ट तक पहुँचते हैं।
शायर लिखता है- शाम तक सुबह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पर जीते हैं कि मर जाते हैं।
मरने से पहले वास्तविक जीना शुरू करना चाहिए। जब ऐसा होता है तो तारीखें, महीने, साल, कुल मिलाकर कैलेंडर ही बौना लगने लगता है और व्यक्ति का व्यक्तित्व सार्वकालिक होकर कालगणना से बड़ा हो जाता है।