हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆ मजबूरी ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “मजबूरी”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #21 ☆
☆ मजबूरी ☆
सिपाही के हाथ् देते ही गौरव की चिंता बढ़ गई. जेब में ज्यादा रूपए नहीं थे, “क्या हुआ साहब?” उस ने सिपाही को साहब कह दिया. ताकि वह खुश हो कर उसे छोड़ दे.
“गाड़ी के कांच पर काली पट्टी क्यों नहीं है?” सिपाही बोला, “चलिए! साहब के पास” उस ने दूर खड़ी साहब की गाड़ी की ओर इशारा किया.
“साहब जी! अब लगवा लूंगा.”
“लाओ 3500 रूपए. चालान बनेगा.” सिपाही ने कहा.
“साहब! मेरे पास इतने रूपए नहीं है” गौरव बड़ी दीनता से बोला .
“अच्छा!” वह नरम पड़ गया, “2500 रूपए और गाड़ी के कागज तो होंगे?”
गौरव खुश हुआ, “हाँ साहब कागज तो है, मगर रूपए नहीं है” कहते हुए उस ने सभी कागज सिपाही को दे दिए.
सिपाही ने कागजात देख कर कहा “अरे ! ड्राइवरी लाइसेंस तो एक्सपायर हो गया.”
“जी साहब! नवीनीकरण के लिए दे रखा है.” कहते हुए गौरव ने अपना दूसरा लाइसेंस सिपाही को पकड़ा दिया. उसे देख सिपाही मुस्करा दिया.
“जेब में कितने रूपए है?”
गौरव ने जेब में हाथ डाला, “साहबजी ! 200 रूपए है.”
सिपाही ने रूपए ले कर चालान काट दिया. फिर बोला, “क्या करें साहब, हमारी भी मजबूरी है. हमें एक निश्चित राशि एकत्र करने का लक्ष्य दिया जाता है, उसे एकत्र करना होता है. इसलिए” कहते हुए सिपाही मुस्करा दिया.
गौरव ने चालान देखा, “अरे ! यह तो मोटरसाइकल का चालान है” कह कर वह मुस्कराया. फिर चुपाचप चल दिया.