डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक मनोवैज्ञानिक एवं विचारणीय लघुकथा ‘वाह रे इंसान !’. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस ऐतिहासिक लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 95 ☆
☆ लघुकथा – वाह रे इंसान ! ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
शाम छ: बजे से रात दस बजे तक लक्ष्मी जी को समय ही नहीं मिला पृथ्वीलोक जाने का। दीवाली पूजा का मुहूर्त ही समाप्त नहीं हो रहा था। मनुष्य का मानना है कि दीवाली की रात घर में लक्ष्मी जी आती हैं। गरीब-अमीर सभी घर के दरवाजे खोलकर लक्ष्मी जी की प्रतीक्षा करते रहते हैं। खैर, फुरसत मिलते ही लक्ष्मी जी दीवाली-पूजा के बाद पृथ्वीलोक के लिए निकल पड़ीं।
एक झोपड़ी के अंधकार को चौखट पर रखा नन्हा – सा दीपक चुनौती दे रहा था। लक्ष्मी जी अंदर गईं, देखा कि झोपड़ी में एक बुजुर्ग स्त्री छोटी बच्ची के गले में हाथ डाले निश्चिंत सो रही थी। वहीं पास में लक्ष्मी जी का चित्र रखा था, चित्र पर दो- चार फूल चढ़े थे और एक दीपक यहाँ मद्धिम जल रहा था। प्रसाद के नाम पर थोड़े से खील–बतासे एक कुल्हड़ में रखे हुए थे।
लक्ष्मी जी को याद आई – ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ कहानी की बूढ़ी स्त्री। जिसने उसकी झोपड़ी पर जबरन अधिकार करनेवाले जमींदार से चूल्हा बनाने के लिए झोपड़ी में से एक टोकरी मिट्टी उठाकर देने को कहा। जमींदार ऐसा नहीं कर पाया तो बूढ़ी स्त्री ने कहा कि एक टोकरी मिट्टी का बोझ नहीं उठा पा रहे हो तो यहाँ की हजारों टोकरी मिट्टी का बोझ कैसे उठाओगे? जमींदार ने लज्जित होकर बूढ़ी स्त्री को उसकी झोपड़ी वापस कर दी। लक्ष्मी जी को पूरी कहानी याद आ गई, सोचा – बूढ़ी स्त्री तो अपनी पोती के साथ चैन की नींद सो रही है, जमींदार का भी हाल लेती चलूँ।
जमींदार की आलीशान कोठी के सामने दो दरबान खड़े थे। कोठी पर दूधिया प्रकाश की चादर बिछी हुई थी। जगह-जगह झूमर लटक रहे थे। सब तरफ संपन्नता थी, मंदिर में भी खान-पान का वैभव भरपूर था। उन्होंने जमींदार के कक्ष में झांका, तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन खाने के बाद भी उसे नींद नहीं आ रही थी। कीमती साड़ी और जेवरों से सजी अपनी पत्नी से बोला – ‘एक बुढ़िया की झोपड़ी लौटाने से मेरे नाम की जय- जयकार हो गई, बस यही तो चाहिए था मुझे। धन से सब हो जाता है, चाहूँ तो कितनी टोकरी मिट्टी भरकर बाहर फिकवा दूँ मैं। गरीबों पर ऐसे ही दया दिखाकर उनकी जमीन वापस करता रहा तो जमींदार कैसे कहलाऊँगा। यह वैभव कहाँ से आएगा, वह गर्व से हँसता हुआ मंदिर की ओर हाथ जोड़कर बोला – यह धन–दौलत सब लक्ष्मी जी की ही तो कृपा है।‘
© डॉ. ऋचा शर्मा
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