श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता  – वसीयत ! ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 171 ☆  

? कविता  – वसीयत! ?

माना

कि मौत पर वश नही अपना

पर प्रश्न है कि

क्या जिंदगी सचमुच अपनी है ?

हर नवजात के अस्फुट स्वर

कहते हैं कि ईश्वर

इंसान से निराश नहीं है

हमें जूझना है जिंदगी से

और बनाना है

जिदगी को जिंदगी

 

इसलिये

मेरे बच्चों

अपनी वसीयत में

देकर तुम्हें चल अचल संपत्ति

मैं डालना नहीं चाहता

तुम्हारी जिंदगी में बेड़ियाँ

तुम्हें देता हूँ अपना नाम

ले उड़ो इसे स्वच्छंद/खुले

आकाश में जितना ऊपर उड़ सको

 

सूरज की सारी धूप

चाँद की सारी चाँदनी

हरे जंगल की शीतल हवा

और झरनों का निर्मल पानी

सब कुछ तुम्हारा है

इसकी रक्षा करना

इसे प्रकृति ने दिया है मुझे

और हाँ किताबों में बंद ज्ञान

का असीमित भंडार

मेरे पिता ने दिया था मुझे

जिसे हमारे पुरखो ने संजोया है

अपने अनुभवों से

वह सब भी सौंपता हूँ तुम्हें

बाँटना इसे जितना बाँट सको

और सौंप जाना कुछ और बढ़ाकर

अपने बच्चों को

 

हाँ

एक दंश है मेरी पीढ़ी का

जिसे मैं तुम्हें नहीं देना चाहता

वह है सांप्रदायिकता का विष

जिसका अंत करना चाहता हूँ मैं

अपने सामने अपने ही जीवन में..

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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Shyam Khaparde

बहुत ही मार्मिक रचना है, बधाई हो सर