डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – शोधछात्र का ज्ञानोदय ☆
पता नहीं कहाँ से पूछता-पाछता वह मेरे घर आया।पुराने संस्कारों का युवक दिखता था। मैला सा कुर्ता-पायजामा, बढ़ी हुई दाढ़ी, और चेहरे पर ईमानदारी और सादगी का भाव।बैठकर भक्तिभाव से कहने लगा, ‘सर, मैं शोध करना चाहता हूँ। आपकी विद्वत्ता की बहुत प्रशंसा सुनी इसलिए आपके पास चला आया। मुझे अपने निर्देशन में ले लीजिए। आपकी कृपा से मेरा कल्याण हो जाएगा।’
मैं अभिभूत हो गया। सोचा, अभी भी विद्वत्ता के कद्रदाँ हैं; अभी भी ऐसे शोध छात्र हैं जो नाम के पीछे नहीं जाते, काम देखते हैं। मैंने उसका शोध विषय देखा, ‘सिनाप्सिस’ बनवायी और विषय पर विस्तार से चर्चा की। शोध की विधि और सम्बन्धित पुस्तकों के बारे में खूब चर्चा हुई।
उसने मेरे निर्देशन में पंजीकृत होने के लिए आवेदनपत्र विश्वविद्यालय में भेज दिया। फिर वह लगभग रोज़ ही मेरे पास आने लगा। हम सिर से सिर जोड़कर घन्टों चर्चा करते।वह रोज़ कुछ न कुछ लिखकर लाता और मुझे दिखाता। कभी कोई पुस्तक लेकर आ जाता और शंका निवारण करता। हमारा काम तेज़ी से चल रहा था। वह बीच बीच में अभिभूत होकर मेरी तरफ हाथ जोड़ देता, कहता, ‘वाह सर, क्या ज्ञान है आपका! मुझे विश्वास है, आपके सहारे मेरी नैया पार हो जाएगी।’ मेरा सिर भी तब आकाश में था।
लगभग एक माह बाद मुझे लगा, मेरा शिष्य कुछ अन्यमनस्क रहता है। एक दिन मुझसे पूछने लगा, ‘क्यों सर! क्या केवल काम के बल पर डिग्री मिल जाती है?’ मैंने उसे पूरी तरह आश्वस्त किया, लेकिन मुझे लगा कहीं कोई गड़बड़ी है।
दो चार दिन बाद वह फिर पूछने लगा, ‘सर, सुना है जो विभागाध्यक्ष होते हैं उनके निर्देशन में काम करने से सफलता प्राप्त करने में आसानी होती है क्योंकि उनके नाम का प्रभाव होता है।’ मैंने उसे फिर काफी समझाया लेकिन अब मेरी आवाज़ कमज़ोर पड़ रही थी। मेरी हालत कुछ उस दुकानदार की सी हो रही थी जिसका ग्राहक बार बार बगल वाली दुकान के चटकीले माल पर नज़र डाल रहा हो।
कुछ दिन बाद मेरा छात्र गायब हो गया। मैं समझ गया कि उसका ज्ञानोदय हो गया। फिर एक दिन वह मेरे पास आया। हाथ जोड़कर बोला, ‘सर, क्षमा करें। लोगों ने मुझे समझाया है कि एक साधारण व्याख्याता के निर्देशन में शोध करने से मेरी लुटिया डूब जाएगी। कहते हैं, विभागाध्यक्ष का पल्ला थामो तभी वैतरणी पार होगी। मुझे क्षमा करें सर, मैं मुटुरकर साहब को अपना निर्देशक बना रहा हूँ।’ यह कहकर अपने सब पोथी-पत्रा समेटकर वह चला गया और मैं ग़ुबार देखता बैठा रह गया।
कुछ दिन बाद वह मेरा भूतपूर्व शोध छात्र मुझसे बाज़ार में टकराया। आगे आगे श्री मुटुरकर चल रहे थे और पीछे पीछे वह एक हाथ में थैला और दूसरे में मुटुरकर जी के छोटे पुत्र की अंगुली थामे चल रहा था। मैंने देखा उसके चेहरे से आत्मज्ञान की आभा फूट रही थी।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश