श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का  चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण एवं विचारणीय “तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध…1”)

☆  तन्मय साहित्य # 142 ☆

☆ तन्मय दोहे – गिरगिट जैसे सिद्ध… 2 ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

भीतर   हिंसक  बाघ  है,   बाहर दिखते गाय।

कहे बात कुछ और ही, रहता कुछ अभिप्राय।।

 

भीतर में  प्रतिशोध है, बाहर में  अनुराग।

ले कागज के फूल को, कहते प्रीत पराग।।

 

चेहरे,  चाल,  चरित्र  से,  हैं  पूरे  संदिग्ध।

रंग बदलने में निपुण, गिरगिट जैसे सिद्ध।।

 

इक – दूजे  के  सामने, वे  हैं  खड़े  विरुध्द।

आपस के इस द्वंद्व में, पथ-विकास अवरुद्ध।।

 

झंडों  में  डंडे  लगे,  डंडों  का  आतंक।

दीमक बन कुर्सी चढ़ें, चरें देश निःशंक।।

 

बहुरुपियों  के  वेश  से,  भ्रमित हुआ  इंसान।

असल-नकल के भेद को, कौन सका पहचान।।

 

बुद्धू  सारे  हो रहे, दाँव – पेंच से  बुद्ध।

बैठे हैं मन मार कर, वें जो शुद्ध- प्रबुद्ध।।

 

मुफ्तखोर निष्क्रियपना, पनप रहा यह रोग

विमुख कर्म से हो रहे, सुविधाभोगी लोग।।

 

लोकतंत्र की नाव में, अगणित छिद्र-दरार।

मनोरोग   से   ग्रस्त   हैं,  इसके   खेवनहार।।

 

साँठ-गाँठ  भीतर  चले,  बाहर  प्रत्यारोप।

षड्यंत्रों का दौर यह, फैला घृणित प्रकोप।।

 

कुर्सी  पर  वंशानुगत,   बना  रहे  अधिकार।

धनबल भुजबल युक्तिबल, तकनीकी संचार।।

 

लोकतंत्र में बो दिए, संशय के विष बीज।

वे ही हैं सम्मुख खड़े, जिनमें नहीं तमीज।।

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

अलीगढ़/भोपाल   

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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