श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 134 ☆
☆ शब्दनाद ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
नाद शब्द का शाब्दिक अर्थ है, अव्यक्तशब्द, ध्वनि, आवाज, यह व्याकरणीय संरचना एवम् शब्द भेद के अनुसार पुल्लिंग है। इसके दो भेद हैं आहद और अनहद नाद यह ऐसी अव्यक्त ध्वनि है जो निरंतर अविराम अनंत अंतरिक्ष में गूंज रही है, जो अव्यक्त है जिसे गहन एकाग्रता और ध्यान में स्थित होने के बाद ही श्रवण किया जा सकता है। यह गीतों का भाव है। यह संगीतो का प्रभाव है। यह ब्रह्म स्वरूप है। इसमें स्तंभन शक्ति समाहित है। सम्मोहन इसका प्रभाव है।
हमारे भाषा साहित्य तथा संगीत की आत्मा नाद ही है। यही नहीं संस्कृत वांग्मय के उद्भट विद्वान महर्षि पाणिनि के चौदह सूत्रों के मूलाधार शिव के डमरू के नाद से ही तो प्रगट हुए हैं। तो वहीं पर मां सरस्वती की वीणा के तारों की झंकार तथा कृष्ण की मुरली अथवा बांसुरी के तानों के सम्मोहन से क्या पशु, क्या पंछी, क्या सारी सृष्टि का जीव जगत कोई भी बच पाया है क्या? क्या गीत और संगीत के सुमधुर सधे स्वर तथा वाद्ययंत्रों के ताल मेल आधारित कर्णपटल से टकराने वाली स्वर लहरी के संम्मोहन से कोई बच पाया है? आखिर ऋषियों मुनियों की शोध, तथा पशु पक्षियों की बोली का मूलाधार शब्द नाद ही तो है। हम तो कोयल तथा पपीहे की कूक में भी संगीत का लय ताल खोज लेते हैं। यह अव्यक्त ब्रह्म स्वरुप भी है वेदों की ऋचाओं में समाहित लयबद्ध सस्वर पाठ की आत्मा भी शब्द नाद ही तो है।
जब वो यज्ञ मंडपों में गूंजती है और उसकी प्रतिध्वनि कर्णपटल से टकराती है तो इसका अर्थ न समझने वाले के भी तन और मन को पवित्र कर देती है। आखिर सामवेद का गान भी तो नाद की ही कोख से पैदा हुआ है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाद का संबंध सृष्टि के समस्त जीव जगत से जुड़ा हुआ है। यह हमारी संस्कृति और सभ्यता की आत्मा है यह परमात्मा की देन है आखिर ॐ शब्द की ध्वनि में ऐसा क्या है जो मन को अपने आकर्षण से बांध कर स्तंभित कर देता है।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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