डॉ. मुक्ता
(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख क्रोध बनाम पश्चाताप। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 144 ☆
☆ क्रोध बनाम पश्चाताप ☆
‘क्रोध मूर्खता से प्रारंभ होता है और पश्चाताप पर समाप्त होता है’ पाइथागोरस का यह कथन कोटिश: सत्य है कि मूर्ख व्यक्ति ही क्रोधित होता है,क्योंकि वह इस तथ्य से अवगत नहीं होता कि इसकी सबसे अधिक हानि क्रोधी को ही उठानी पड़ती है। क्रोध के समय मानव का विवेक नष्ट हो जाता है और वह आत्म-नियंत्रण में नहीं रहता। वह तुरंत प्रतिक्रिया दे देता है; जो आग में घी का काम करती है। इसलिए वह मूर्ख कहलाता है,क्योंकि अपने अहित के बारे में वह सोचता ही नहीं। अक्सर क्रोध की स्थिति में वह प्रतिपक्षी के प्राण लेने पर भी उतारू हो जाता है। वह वाणी पर भी आत्म-नियंत्रण खो देता है। उस स्थिति में वह ऊल-ज़लूल सोचता ही नहीं; दूषित भावों को बढ़ा-चढ़ा कर अकारण उगल देता है। एक अंतराल के पश्चात् उसे अपनी ग़लती का एहसास होता है और वह पश्चाताप की अग्नि में जलने लगता है, जिसका कोई लाभ नहीं होता,क्योंकि समय व अवसर हाथ से निकल जाने के पश्चात् व्यक्ति हाथ मलता रह जाता है, जैसा कि ‘फिर पछताय होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत।’
गुस्सा और मतभेद बारिश की तरह होना चाहिए,जो बरस कर समाप्त हो जाए और प्रेम हवा की तरह ख़ामोश होना चाहिए और सदैव आसपास रहना चाहिए–यह सोच अत्यंत सार्थक है। दूसरे शब्दों में क्रोध दूध के उबाल जैसा होना चाहिए और मतभेद बारिश की तरह होने चाहिएं। जिस प्रकार बादल उमड़-घुमड़ कर आते हैं और बरस कर शांत हो जाते हैं; तप्त धरा को शीतलता प्रदान करते हैं,जिसके उपरांत मन-आँगन प्रफुल्लित हो जाता है। जैसे बारिश सब कुछ बहाकर ले जाती है और धरा हरी-भरी हो जाती है। उसी प्रकार हृदय में पल्लवित मलिनता व मनोमालिन्य भी तुरंत समाप्त हो जाने चाहिए। पति-पत्नी में विचार-वैषम्य बारिश की तरह होने चाहिए और मानव को अपने मन की बात कहने के पश्चात् शांत हो जाना चाहिए; मनो-मालिन्य को घर में आशियां नहीं बनाने देना चाहिए, क्योंकि वह स्थिति अत्यंत घातक होती है,जिसका भयावह परिणाम बढ़ते तलाक़ों के रूप में हमारे समक्ष हैं। बच्चे व परिवारजन सब इस एकांत की त्रासदी झेलने को विवश हैं। दूसरी ओर प्रेम मलय वायु की झोंकों की भांति होना चाहिए, जो ख़ामोशी के रूप में सदैव आपके अंग-संग रहे। स्नेह, प्रेम व सौहार्द का बसेरा मौन में ही संभव है। सो! इसके लिए सहनशीलता अपेक्षित है,जो मौन की प्राथमिक शर्त है। प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता; त्याग व समर्पण चाहता है,जो विनम्रता के भाव के रूप में जीवन में पदार्पण करता है। सो! जहां प्रेम है; वहां देवता निवास करते हैं; लक्ष्मी का वास रहता है तथा पारस्परिक वैमनस्य भाव का स्थान नहीं होता।
‘मरहम होते हैं कुछ लोग/ शब्द बोलते ही दर्द गायब हो जाता है/ ऐसे लोगों की वाणी में माधुर्य होता है और उनकी वाणी ज़ख्मों पर मरहम की भांति कार्य करती है।’ उस स्थिति में स्व-पर व राग-द्वेष के भाव समाप्त हो जाते हैं। उनमें ऐसी आकर्षण शक्ति होती है कि मन उनके आसपास रहने और सत्वचन सुनने को तत्पर रहता है। इसलिए कहा जाता है कि मानव अपने शब्दों द्वारा दूसरों की पीड़ा हर सकता है। ‘वीणा के तार ढीले मत छोड़ो/ ढीला छोड़ने व अधिक खींचने से उसका स्वर मधुर व सुरीला नहीं
निकलता।’ इतना ही नहीं, यदि वीणा के तारों को अधिक कसा जाए; वे टूट जाएंगे’ के माध्यम से सदैव मीठे वचन बोलने की सीख दी गई है। मीठी बातों से सर्वत्र सुख प्राप्त होता है। सो! कठोर वचनों का त्याग करना वशीकरण मंत्र है–तुलसीदास जी की यह सोच अत्यंत सार्थक है।
मनुष्य जब अपनी ग़लतियों का वकील और दूसरों की ग़लतियों का जज बन जाता है, फैसले नहीं फ़ासले बढ़ जाते हैं। सो! मानव को अपनी ग़लती को स्वीकारने में संकोच कर लज्जा का अनुभव नहीं करना चाहिए,क्योंकि व्यर्थ वाद-विवाद से दिलों में दरारें पनप जाती हैं–जिन्हें पाटना असंभव हो जाता है। ‘ऐ मन! सीख ले तू/ ख़ुद से बात करने का हुनर/ खत्म हो जाएंगे/ सारे दु:ख द्वंद्व/ नहीं रहेगा तू अकेला जहान में/ साथ देंगे तेरे अपने ही दुश्मन/ तू सबका प्रिय बन जाएगा।’ स्वरचित पंक्तियां स्वयं से बात करने की सीख देती हैं। मौन नवनिधि है और सबसे कारग़र दवा है, जिससे रिश्ते पनपते हैं। ‘अपनी ऊंचाई पर कभी घमंड न करना ऐ दोस्त!/ सुना है बादलों को भी पानी ज़मीन से उठाना पड़ता है।’ दूसरी और कोई तुम्हारे लिए दरवाजा बंद कर ले,तो उसे एहसास दिला देना कि कुंडी दोनों ओर होती है। इससे तात्पर्य है कि मानव को रिश्तों को बनाए रखने व स्थायित्व प्रदान करने हेतु झुकने व समझौता करने में तनिक भी संकोच नहीं चाहिए। परंतु अपने आत्म-सम्मान व अस्तित्व को बनाए रखना उसकी प्राथमिक व आवश्यक शर्त है।
जीवन में आधा दु:ख ग़लत लोगों से उम्मीद रखने से होता है और बाकी का आधा दु:ख सच्चे लोगों पर संदेह अर्थात् शंका करने से आता है। इसलिए सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए। वह इंसान कभी हार नहीं सकता, जो बर्दाश्त करना जानता है। सो! मानव तो सहना चाहिए, कहना नहीं,क्योंकि ‘सहने’ से समाधान निकलता है और ‘कहने’ से राई का पर्वत बन जाता है। रिश्तों का निबाह करने के लिए मानव को सहन करना आना चाहिए; कहना नहीं। प्लेटो के मतानुसार ‘मानव व्यवहार तीन मुख्य स्रोतों से निर्मित होता है– इच्छा,भाव व ज्ञान और ऐसे व्यक्ति को सदैव संभाल कर रखना चाहिए,जिसने आपको यह तीन चीज़ें भेंट की हों–साथ, समय व समर्पण।’ ऐसे लोग सदैव मानव के सुख-दु:ख के साथी होते हैं।
कोई कितना भी बोले व स्वयं को शांत रखें; आपको अकारण प्रभावित नहीं कर सकता,क्योंकि धूप कितनी भी तेज़ हो; समुद्र को सुखा नहीं सकती। मन को शांत रखना जीवन को सफल बनाने का अनमोल खज़ाना है। वाशिंगटन के मतानुसार ‘अपने कर्त्तव्य में लगे रहना और चुप रहना– बदनामी का सबसे सबसे अच्छा जवाब है।’ वैसे बोलना भी एक सज़ा है। सो! इंसान को यथायोग्य,यथास्थान उचित बात कहनी चाहिए। यदि सच्ची बात मर्यादा में रहकर मधुर भाषा में कही जाए,तो सम्मान दिलाती है,वरना कलह का कारक बन जाती है। ग़लत बात बोलने से चुप रहना उचित व श्रेयस्कर है। वाणी से निकला हर एक कठोर शब्द घाव करके महाभारत करा सकता है। यदि वाणी की मर्यादा को ध्यान में रखकर बात कही जाए,तो बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ रोकी जा सकती हैं। इसलिए कबीर जी कहते हैं कि ‘मीठी वाणी बोलना/ काम नहीं आसान/ जिसको आती यह कला/ होता वही सुजान।’
‘चुपचाप कहते रहो तो सब अच्छा है। अगर बोल पड़े तो आपसे बुरा कोई नहीं’ के माध्यम से मानव को मौन रहकर सहन करने का संदेश दिया जाता है। इसलिए कहा जाता है कि संसार में वही व्यक्ति सफल है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए होते हैं। परंतु सहनशीलता तभी तक अच्छी होती है; जब तक उसे आत्म-सम्मान से समझौता नहीं करना पड़ता। हर वस्तु की अधिकता हानिकारक होती है और उसका खामियाज़ा मानव को अवश्य भुगतना पड़ता है। सो! जीवन में समन्वय की राह पर चलते हुए सांमजस्यता प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
© डा. मुक्ता
माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी
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