श्री संजय भारद्वाज
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 150 ☆ अतिलोभात्विनश्यति-2 ☆
गतांक में लोभ को पाप की जड़ कहा था। पत्ती से जड़ तक की प्रक्रिया को विस्तार से समझने के लिए एक श्लोक का संदर्भ लेंगे-
लोभात् क्रोध: प्रभवति लोभात् काम: प्रजायते।
लोभात् मोहश्च नाशश्च लोभ: पापस्य कारणम्।।
लोभ से क्रोध जन्म लेता है, लोभ से वासना उत्पन्न होती है, लोभ से मोह पलता है और मोह से विनाश होता है, लोभ पाप का कारण है।
यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्रोध और लोभ आपस में कैसे जुड़े हुए हैं? एक उदाहरण की सहायता से उत्तर तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं। आजकल किसी प्रसिद्ध क्षेत्र के निकटवर्ती गाँव में आवासीय संकुल बनाकर मार्केटिंग की दृष्टि से उसे प्रसिद्ध क्षेत्र का एनेक्स कहा जाता है। किसी और को कुछ प्राप्त होते देखने से उत्पन्न होने वाला डाह, लोभ का एनेक्स है। क्रोध का मुख्य घटक है डाह।
मनुष्य में डाह अंतर्भूत है। कम या अधिक है पर हरेक के भीतर है।
इस ‘हरेक’ को समझने के लिए एक प्रयोग अपने आप पर कर सकते हो।…तुम निराश हो, परेशान हो, कुछ हद तक बिखरे-बिखरे हो? सोचो क्यों..? तुम्हें लगा था कि तुम हमेशा बादशाह रहोगे, तुम्हारे सिवा कोई बादशाह न है, न होगा। ध्यान देना, एक समय में दुनिया में कोई अकेला बादशाह नहीं हुआ। अपने-अपने इलाके में अपनी-अपनी तरह के सैकड़ों, हज़ारों बादशाह हुए। हरेक इसी भ्रम में रहा कि उसके सिवा कोई बादशाह नहीं। कुछ ऐसी ही स्थिति तुम्हारी है।
बादशाहत हमेशा के लिए किसी की नहीं थी। बादशाहत हमेशा के लिए किसी की रहेगी भी नहीं। जब तक का इतिहास जान सकते हो, समझ सकते हो, पढ़ सकते हो, पढ़ना-समझना-जानना। उससे पीछे का भी जहाँ तक अनुमान लगा सकते हो, लगाना। अतीत के अनुभव के आधार पर भावी इतिहास की भी कल्पना करना। अपनी कथित बादशाहत का सत्य स्वयं समझ जाओगे।
सत्य तो यह है कि तुम अपने से ऊपर किसी को नहीं पाते। इसलिए टूटने लगते हो, बिखरने लगते हो। किसी को बढ़ते देखते हो तो तुम्हारे भीतर मत्सर जन्म लेने लगता है, जो शनै:-शनै: तुम पर हावी होने लगता है। क्षणभंगुर का स्वामी होने का जो मिथ्या अहंकार है तुम्हें, वह अहंकार भीतर ही भीतर खाये जा रहा है, कुंठित कर रहा है, कुंठा से बाहर निकलो।
स्मरण रखना कि दूसरे की सफलता से जो कुंठित होता है, सफलता उससे दूर होती जाती है। दूसरे की सफलता से जो प्रेरित होता है, सफलता उसके निकट आने लगती है।
जीवन में आनंदित रहना चाहते हो तो जो तुम्हारे पास है, उसका उत्सव मनाना सीखो।
आनंद असीम है। आनंद वस्तु या विषय में नहीं, ग्रहण करने वाले की क्षमता पर निर्भर करता है। इस क्षमता के विकास के लिए संतोष का संचय करो। यह भी याद रहे कि संतोष कहीं से लाकर संचित नहीं करना पड़ता, बस लोभ को बाहर का मार्ग दिखाओ, संतोष स्वयंमेव भीतर प्रविष्ट हो जाएगा।
संतोष तुम्हारे द्वार पर खड़ा है। यह कथनी को करनी में बदलने का समय है। शुभं अस्तु।
© संजय भारद्वाज
☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
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संजयउवाच@डाटामेल.भारत
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈