डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका एक अप्रतिम गीत – घरनी से घर लगता है…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 100 – गीत – घरनी से घर लगता है…
घरनी से घर लगता है
वरना रैन बसेरा है।
पहली किरन उगे सूरज की
जग जाती है घरवाली।
हो जाता है स्नान ध्यान सब
सज जाती पूजा की थाली।
ऐसा सुखद सबेरा है।
करके झाड़ बुहारी सारी
करती लांघी चोटी है।
दाल उबलती बटलोई में
बनती जाती रोटी है।
चौका आंगन फेरा है ।
दफ्तर की भी जल्दी होती
सुई सरकती जाती है।
सबके खाने की चिंता में
कहां ठीक से खाती है।
लगता रहता टेरा।
राह देखता तुलसी चौरा
इंतजार में सँझवाती।
लौटा करती साँझ ढले वह
संग साथ सब्जी लाती।
सूर्यमुखी सँझबेरा है ।
घरनी से घर लगता है
वरना रैन बसेरा है।
© डॉ राजकुमार “सुमित्र”
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