श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा “मापदंड”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #22 ☆
☆ मापदंड ☆
“मैंने पहले ही कहा था. तुम्हें नहीं मिलेगा.” रघुवीर ने कहा तो प्रेमचंद बोले, “मगर, तुम ने यह किस आधार पर कहा था ? मैं यह बात अभी तक समझा नहीं हूँ?”
“मैं उन को अच्छी तरह जानता और पहचानता हूँ.” ‘ रघुवीर ने कहा.
“वे मेरे अच्छे मित्र है. मैं उन्हें नही जानता और तुम अच्छी तरह पहचानते हो ?” प्रेमचंद ने स्पष्टीकरण दिया, “मेरी पुस्तक की भूमिका उन्हीं ने लिखी थी. उस का प्रकाशन भी उन्हीं ने किया था. इसलिए उस पुस्तक को पुरस्कार मिलना लगभग तय था. आखिर पुरस्कार भी वे ही दे रहे हैं.”
“हूँ.” रघुवीर ने लंबी सांस ली. फिर धीरे से कहा, ‘”तुम बहुत अच्छा लिखते हो, इसलिए वे तुम से जुड़े हैं. मगर, वे पूरे व्यावसायिक लेखक हैं. अपना अच्छाबुरा अच्छी तरह समझते हैं. इसलिए तुम्हारी पुस्तक को…..”
“इस से उन्हें क्या फायदा मिलेगा ?” प्रेमचंद ने बात बीच में काट कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “मेरे भाई, यह नया जमाना है. यहां अधिकांश वही होता है जो तुम्हारी फितरत में नहीं है. यानी तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाता हूं.”
“मतलब !” प्रेमचंद ने आंखें और हाथ ऊंचका कर पूछा तो रघुवीर ने कहा, “जिन का नाम पुरस्कार के लिए घोषित हुआ है उन्हों ने पहले इन को पुरस्कृत व सम्मानित किया था. इसलिए तुम्हारा…” कह कर रघुवीर ने भी आंखें मटका दी.
यह सुन कर प्रेमचंद ने रघुवीर के सामने हाथ जोड़ कर कह दिया, “वाह ! महाप्रभु ! आप और वे धन्य है. उन्हें और आप को अपनी पूछपरख का पता तो हैं. हम अनाड़ी ही भले.” कह कर वे चुपचाप एक नई रचना लिखने के लिए अपने कक्ष में चले गए.