श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 137 ☆
☆ कथा-कहानी ☆ ट्रांसजेंडर ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆
(उन्हें हमेशा हेय दृष्टि से देखा जाता है। समाज ने उन्हें कभी भी सम्मानित दृष्टि से नहीं देखा। उन्हे छक्का, हिजड़ा, नपुंसक आदि न जाने कितने नामों से संबोधित किया जाता है, जब कि वे भी आम इंसान ही हैं। उनकी भी दुख सुख पीड़ा की अनुभूति साधारण इंसान की तरह ही होती है। वे भी प्रेम के भूखे हैं। अगर कोई शारीरिक विकृति है तो उसमें उनका क्या दोष? यदि आज भी उन्हें संरक्षण मिले तो वह हमारे समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं। वे पढ़ लिख सकते हैं, डाक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बन कर समाज का भला कर सकते हैं। बस जरूरत दृष्टिकोण बदलने की है। – सूबेदार पाण्डेय)
अभी अभी मैं ट्रेन से सफर पूरा कर वाराणसी स्टेशन के प्लेटफार्म पर उतर कर ओवरब्रिज से बाहर नीचे उतरने वाला ही था कि सहसा पीठ पीछे से किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रख कर हौले से दबा दिया। मैंने ज्यों ही पीछे पलट कर देखा तो किसी अज्ञात नवयौवना जैसी दिखने वाली दुबली पतली कोमल छरहरी काया वाली लड़की दिखी, जो मुझे देख कर हसरत भरी निगाहों से मुस्कुरा उठी, उसने रहस्यमयी अंदाज में फुसफुसाते हुए ही कहा था, ओए… मेरे साथ चल न! … उसके इन शब्दों को सुनते ही मेरे भीतर का बैठा पत्रकार सजग हो उठा। और मुझे लगा कि रिपोर्टिंग करने के लिए कोई नया विषय मिलेगा, मेरे भीतर बैठा पत्रकार नये विषय की रिपोर्टिंग करने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।
मेरा उद्देश्य तो खोजी पत्रकारिता था, मुझे भीतर का सारा राज जानना था इस लिए उसे टालने के उद्देश्य से मैंने कहा कि चल चाय पीकर चलते हैं। और मैं उसके साथ चाय के स्टॉल पर जा बैठा और उससे इधर उधर की बातें करने लगा था। उसने बताया कि सौ रूपए होटल वाला लेता है और पचास रुपए पुलिस वाला। मैंने फुसफुसाते हुए ही उससे पूछा फिर तो तुम्हारा खर्च कैसे पूरा पड़ता होगा? ना जाने उसे कौन सा अपनापन मिला, उसकी आंखें छलछला आई थी। मैंने जब उसके बारे में जानकारी चाही तो वह उसने कहा बाबू जी यह चाय की दुकान है चलिए कहीं और चलते हैं। उसके पीछे-पीछे अपनी नई कहानी की तलाश लेकर बगल वाले हनुमान मंदिर पर जा बैठे।
फिर बातों का सिलसिला चला तो ना तो उसे अपने समय का ज्ञान रहा और ना तो मुझे ही। हम उसकी दुख दर्द पीड़ा की कहानी में उलझ कर रह गए। बातों ही बातों में मैंने उसका हाथ प्यार से पकड़ लिया था, प्यार और अपनेपन ने उसे खोल कर रख दिया।
फिर उसने अपनी जो कहनी बताई उसने मेरी अंतरात्मा को झिंझोड़ कर रख दिया और मैं आकंठ डूब गया। उसकी व्यथा कथा में, और वह अपने बीते दिनों को याद करते हुए स्मृतियों में खोती हुइ बोल पड़ी थी।
बाबूजी मेरा जन्म पटना बिहार में संभ्रांत परिवार में हुआ था मेरे जन्म के समय मेरे माता-पिता के खुशियों का कोई ठिकाना नहीं था।
मैं अपने मां बाप की छत्रछाया में सुख चैन से अच्छी भली पल रही थी लेकिन मैं जैसे जैसे बढ़ती गई मेरे भीतर अजीब से बदलाव आते गये । मेरी आवाज़ में अलग भारीपन सुनाई देने लगा, शारिरिक संरचना भी बदलने लगी थी और फिर एक दिन एक डाक्टर ने मेरी मां को बताया कि मैं छक्का (ट्रांसजेंडर) हूँ। उस दिन मेरे मां बाप मेरे तथा अपने दुर्भाग्य पर फूट फूट कर रोए थे। और फिर एक दिन हमारे गांव आई थी छक्को की टोली और हमें उठा ले गई अपने साथ। गाना, नाचना सिखाया था और अपने समाज में शामिल कर लिया था। शुरुआती दौर में हमें ए सब कुछ अच्छा नहीं लगता था लेकिन बाद में उसे अपनी नियति का लेख समझ कर स्वीकार कर लिया और लोगों के घर बधाइयां गाने जाने लगी थी। हमारे समूह में गुरु हुआ करते थे जिन्हें हम अपना माता पिता संरक्षक सभी कुछ समझते थे।
हमारा अपना क्षेत्र बंटा होता था। हमारे और गुरु के बीच पिता और पुत्री का रिश्ता होता था। हमने उसे बीच में टोंका था कि जब जिंदगी अच्छी भली चल ही रही थी खाने कमाने के लिए मिल ही रहा था तो फिर इस घृणित पेशे में कैसे आ गई।
और बनारस को ही अपने धंधे के लिए क्यों चुना। उसे लगा कि मैं उसे बहका रहा हूं। मैंने उसे भरोसा दिलाया कि घबराओ मत, आज हम तुम्हें पांच सौ रुपया देंगे। उसे सहसा मेरी बात का ऐतबार नहीं हुआ। लेकिन जब मैंने प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा तो वह अपनेपन की अनुभूति पा कर फूट फूट कर रो पड़ी थी। और एक बार फिर अपनी राम कहानी बताती चली गई थी। वह भावुक हो कर बोल पड़ी थी बाबू जी आप कहां से आए हैं कहां जाना है मुझे कुछ भी नहीं पता, फिर भी मैंने आप में अपनेपन की अनुभूति की है इस लिए झूठ नहीं बोलूंगी। हमारे समाज में अपनें गुरु के बूढ़े असहाय होने पर हम उन्हें घर से बाहर नहीं निकालते हैं हमारे उपर ही उनके पालन पोषण का भार है, मुझे दमें की बीमारी है मैं समूह के साथ नांच गा नहीं सकती, लेकिन फिर भी हम अपने कसम से बंधे हुए हैं हममें से हरेक एक एक महीने अपने गुरु का खर्च देखता है। अब मैं नाचने योग्य रही नहीं। घर तथा परिवार तथा समाज का रास्ता मेरे लिए बंद है पढ़ी लिखी हूं नहीं, कोई आय का साधन है नहीं । और गुरु जी के देख रेख का भार मेरे ऊपर आने वाला है फिर इस परिस्थिति में मैं खुद क्या खाऊंगी और उन्हें क्या खिलाऊंगी। बाबूजी ए पापी पेट का सवाल है, इसके लिए चाहे तन बेचना पड़े चाहे खून बेचना पड़े जान रहे या जाए लेकिन गुरु को दिया वचन कैसे तोड़ सकती हूं?
यह काशी मोक्ष नगरी है सुना है यहां बाबा विश्वनाथ जी और मां अन्नपूर्णा की कृपा से भूखा कोई नहीं सोता, मैं तो महाश्मशान को यह इच्छा लेकर अपना नृत्य और गीत सुनाने आई थी कि इसी बहाने बाबा की कृपा हो जाय और मोक्ष मिल जाए इसी विश्वास और भरोसे पर यहां वहां भटकती फिर रही हूं। और काशी की होकर रह गई हूँ।
शायद कहीं भोलेनाथ मिल जाए। इतना कहते-कहते वह फफक-फफक कर रो पड़ी थी। और उसकी कर्म निष्ठा देखकर मैं भी रो पड़ा था, मेरा सिर झुकता चला गया था। मैंने खुद को संयत करते हुए उसे भरोसा दिलाया था कि तुम्हें तथा तुम्हारे समाज के लिए अवश्य कुछ करूंगा। और यह कहते हुए उसकी तरफ मैंने एक हजार रूपए उसकी तरफ बढ़ाया था, जिसे वह लेने से इंकार कर रही थी कि बाबू जी आप मेरे लिए ग्राहक नहीं हो। मैं मन ही मन सोच रहा था कि पुरुषार्थविहीन नपुंसक वे नहीं, पौरुष रहते हुए हमारा समाज नपुंसक है जो र चार औलादों के रहते भी मां बाप को नहीं पाल सकते जब कि एक वो है जो तन और ख़ून बेचकर भी अपनी कसम निभाने पर आमादा हैं जिनका अपने गुरु से खून का रिश्ता न सही फिर भी इंसानियत का रिश्ता तो है ही और एक हमारा समाज है जो अपने जन्मदाता को वृद्धाश्रम में रखता है। हर शहर में वृद्धाश्रम मिलेंगे जब कि ट्रांसजेंडर का कोई वृद्धाश्रम नहीं मिलेगा। इस तरह वह तो चली गई और मैं अपने रास्ते चला गया लेकिन छोड़ गई एक प्रश्नचिन्हो की शृंखला????
क्या हमारे समाज के प्रति लोगों का नज़रिया बदलेगा ?
क्या हमें पढ़ लिखकर कुछ बनकर देश सेवा का अधिकार नहीं?
अगर घर में अन्य दिव्यांग जन रह सकते हैं तो फिर हम क्यो नही?
आखिर समाज हमें कब स्वीकार करेगा?
हम अछूत क्यों ?
आज मुझे उसके व्यक्तित्व के आगे सारे समाज का व्यक्तित्व बौना नजर आ रहा था जो मुझे बार-बार सोचने पर विवश कर रहा था कि अभी और ना जाने कितनी जिंदगियां है जिन्हें हमारे समाज के सहारे की जरूरत है।
© सूबेदार पांडेय “आत्मानंद”
संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266
बेहतरीन अभिव्यक्ति, बधाई।
आदरणीय मित्र हृदय तल से आभार आपका आदरणीय श्री