डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते बनाम संवेदनाएं। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 147 ☆

☆ रिश्ते बनाम संवेदनाएं

सांसों की नमी ज़रूरी है, हर रिश्ते में/ रेत भी सूखी हो/ तो हाथों से फिसल जाती है। प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं; अगर देने लग जाओ/ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं–जैसे जीने के लिए एहसासों की ज़रूरत है; संवेदनाओं की दरक़ार है। वे जीवन का आधार हैं, जो पारस्परिक प्रेम को बढ़ाती हैं; एक-दूसरे के क़रीब लाती हैं और उसका मूलाधार हैं एहसास। स्वयं को उसी सांचे में ढालकर दूसरे के सुख-दु:ख को अनुभव करना ही साधारणीकरण कहलाता है। जब आप दूसरों के भावों की उसी रूप में अनुभूति करते हैं; दु:ख में आंसू बहाते हैं तो वह विरेचन कहलाता है। सो! जब तक एहसास ज़िंदा हैं, तब तक आप भी ज़िंदा मनुष्य हैं और उनके मरने के पश्चात् आप भी निर्जीव वस्तु की भांति हो जाते हैं।

सो! रिश्तों में एहसासों की नमी ज़रूरी है, वरना रिश्ते सूखी रेत की भांति मुट्ठी से दरक़ जाते हैं। उन्हें ज़िंदा रखने के लिए आवश्यक है– सबके प्रति प्रेम की भावना रखना; उन्हें सम्मान देना व उनके अस्तित्व को स्वीकारना…यह प्रेम की अनिवार्य शर्त है। दूसरे शब्दों में जब आप अहं का त्याग कर देते हैं, तभी आप प्रतिपक्ष को सम्मान देने में समर्थ होते हैं। प्रेम के सम्मुख तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। रिश्ते-नाते विश्वास पर क़ायम रह सकते हैं, अन्यथा वे पल-भर में दरक़ जाते हैं। विश्वास का अर्थ है, संशय, शंका, संदेह व अविश्वास का अभाव–हृदय में इन भावों का पदार्पण होते ही शाश्वत् संबंध भी तत्क्षण दरक़ जाते हैं, क्योंकि वे बहुत नाज़ुक होते हैं। ज़िंदगी की तपिश को सहन कीजिए, क्योंकि वे पौधे मुरझा जाते हैं, जिनकी परवरिश छाया में होती है। भरोसा जहाँ ज़िंदगी की सबसे महंगी शर्त है, वहीं त्याग व समर्पण का मूल आधार है। जब हमारे अंतर्मन से प्रतिदान का भाव लुप्त हो जाता है; संबंध प्रगाढ़ हो जाते हैं। इसलिए जीवन में देना सीखें। यदि कोई आपका दिल दु:खाता है, तो बुरा मत मानिए, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि लोग उसी पेड़ पर पत्थर मारते हैं, जिस पर मीठे फल लगते हैं। सो! रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं। इसलिए अपनों से कभी मत ग़िला-शिक़वा मत कीजिए।

‘जिसे आप भुला नहीं सकते, क्षमा कर दीजिए तथा जिसे आप क्षमा नहीं कर सकते, भूल जाइए।’ हर पल, हर दिन प्रसन्न रहें और जीवन से प्यार करें; यह जीवन में शांत रहने के दो मार्ग हैं। जैन धर्म में भी क्षमापर्व मनाया जाता है। क्षमा मानव की अद्भुत् व अनमोल निधि है। क्रोध करने से सबसे अधिक हानि क्रोध करने वाले की होती है, क्योंकि दूसरा पक्ष इस तथ्य से बेखबर होता है। रहीम जी ने भी ‘क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात्’ के माध्यम से यह संदेश दिया है। संवाद संबंधों की जीवन-रेखा है। इसे कभी मुरझाने मत दें। इसलिए कहा जाता है कि वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें। स्नेह का धागा व संवाद की सूई उधड़ते रिश्तों की तुरपाई कर देते हैं। सो! संवाद बनाए रखें, अन्यथा आप आत्मकेंद्रित होकर रह जाएंगे। सब अपने-अपने द्वीप में कैद होकर रह जाएंगे– एक-दूसरे के सुख-दु:ख से बेखबर। ‘सोचा ना था, ज़िंदगी में ऐसे फ़साने होंगे/ रोना भी ज़रूरी होगा, आंसू भी छुपाने होंगे’ अर्थात् अजनबीपन का एहसास जीवन में इस क़दर रच-बस जाएगा और आप उस व्यूह से चाहकर भी उससे मुक्त नहीं हो पाएंगे।

आज का युग कलयुग अर्थात् मशीनी युग नहीं, मतलबी युग है। जब तक आप दूसरे के मन की करते हैं; तो अच्छे हैं। एक बार यदि आपने अपने मन की कर ली, तो सभी अच्छाइयां बुराइयों में तबदील हो जाती हैं। इसलिए विचारों की खूबसूरती जहां से मिले; चुरा लें, क्योंकि चेहरे की खूबसूरती तो समय के साथ बदल जाती है; मगर विचारों की खूबसूरती दिलों में हमेशा अमर रहती है। ज़िंदगी आईने की तरह है, वह तभी मुस्कराएगी, जब आप मुस्कराएंगे। सो! रिश्ते बनाए रखने में सबसे अधिक तक़लीफ यूं आती है कि हम आधा सुनते हैं; चौथाई समझते हैं; बीच-बीच में बोलते रहते हैं और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया व्यक्त कर देते हैं। सो! उससे रिश्ते आहत होते हैं। यदि आप रिश्तों को लंबे समय तक बनाए रखना चाहते हैं, तो जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार लें, क्योंकि उपेक्षा, अपेक्षा और इच्छा सब दु:खों की जननी हैं और वे दोनों स्थितियां ही भयावह होती हैं। मानव को इनके चंगुल से बचकर रहना चाहिए। हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को संजोकर रखना चाहिए और साहस व धैर्य का दामन थामे आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। जहां कोशिशों का क़द बड़ा होता है; उनके सामने नसीबों को भी झुकना पड़ता है। ‘है अंधेरी रात पर दीपक जलाना कब मना है।’ आप निरंतर कर्मरत रहिए, आपको सफलता अवश्य प्राप्त होगी। रिश्तों को बचाने के लिए एहसासों को ज़िंदा रखिए, ताकि आपका मान-सम्मान बना रहे और आप स्व-पर व राग-द्वेष से सदा ऊपर उठ सकें। संवेदना ऐसा अस्त्र है, जिससे आप दूसरों के हृदय पर विजय प्राप्त कर सकते हैं और उसके घर के सामने नहीं; उसके घर अथवा दिल में जगह बना सकते हैं। संवेदना के रहने पर संबंध शाश्वत बने रह सकते हैं। रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिए। परंतु जहां सम्मान न हो; जोड़ने भी नहीं चाहिएं। आज के रिश्तों की परिभाषा यह है कि ‘पहाड़ियों की तरह ख़ामोश हैं/ आज के संबंध व रिश्ते/ जब तक हम न पुकारें/ उधर से आवाज़ ही नहीं आती।’ सचमुच यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

16.7.22.

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments