श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना समर्पण. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 8 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ समर्पण ☆
पत्तों – सा हरा , पीला फिर भूरा
इसमें है जीवन का मर्म पूरा
नवकोमल , नवजीवन , नवनूतन चहुँ ओर
नवपुलकित , नवगठित , नवहर्ष सब ओर
नवसृजन , नवकर्म , नवविकास इस ओर
पत्तों सा हरा ——–
पककर , तपकर , स्वर्णकर तन अपना
अपनों को सब अपना अर्पण करना
पीत में परिवर्तित हो जाना
जीवनक्रम अग्रसर करना
पत्तों सा हरा ——-
भू से भूमि में मिल जाना
धूमिल – भूमिल हो जाना
नवजीवन की आस जगाना
यह ही है जीवन बतलाना
पत्तों सा हरा ——–
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र