हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 23 – व्यंग्य – स्वाइन-फ्लू और भैयाजी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार
डॉ कुन्दन सिंह परिहार
☆ व्यंग्य – स्वाइन-फ्लू और भैयाजी ☆
तीन दिन से भैयाजी हलाकान हैं। जु़काम और खाँसी ने ऐसा पकड़ा है कि चैन नहीं है। नाक पनाला हो गयी है। भैयाजी दो बार छींकते हैं तो चमचे चार बार छींकते हैं। मेज़ पर दवा की शीशियों का ढेर लगा है। हर चमचा एक दो शीशियाँ लाया है, इस इसरार के साथ कि ‘भैयाजी, एक बार जरूर आजमाएं।’
प्रधान चमचा कहता है, ‘भैयाजी, अब आपकी परेशानी देखी नहीं जाती। उठिए, अस्पताल चलिए। जाँच करा देते हैं। कहीं स्वाइन-फ्लू न हो। खतरा नहीं लेना चाहिए।’
भैयाजी भयभीत होकर हाथ उठाते हैं। ‘ना भैया, अस्पताल नहीं जाना है। अस्पताल गया तो गंध मिलते ही अखबार और टीवी वाले पहुँच जाएंगे। अगर स्वाइन-फ्लू निकल आया तो बड़ी किरकिरी हो जाएगी। मेरे विरोधी वैसे भी पीठ पीछे मेरे लिए ‘सुअर’ ‘गधा’ शब्दों का इस्तेमाल करते रहते हैं। स्वाइन-फ्लू निकल आया तो और मखौल उड़ेगा।’
प्रधान चमचा दुखी होकर कहता है, ‘कैसी बातें करते हैं भैयाजी? सैकड़ों लोगों को यह रोग हुआ है।’
भैयाजी कहते हैं, ‘हुआ होगा। उनकी वे जानें। हमें स्वाइन-फ्लू निकल आया तो दुश्मन यही कहेंगे कि हममें सुअर के कुछ गुण होंगे, तभी इस रोग ने हमें पकड़ा। वर्ना स्वाइन-फ्लू का आदमी से क्या लेना देना? भैया, बर्ड-फ्लू तो चल जाएगा, स्वाइन-फ्लू नहीं चलेगा।’
चमचा मुँह लटका कर कहता है, ‘फिर क्या करें भैयाजी?’
भैयाजी कहते हैं, ‘ऐसा करो, कोई भरोसे का डाक्टर हो तो उसे यहीं ले आओ। वह चुपचाप यहीं जाँच कर लेगा। लेकिन पहले उसे गंगाजल हाथ में लेकर कसम खानी होगी कि स्वाइन-फ्लू निकलने पर अपना मुँह बन्द रखेगा।’
प्रधान चमचा कहता है, ‘ठीक है, भैयाजी। मैं कोई माकूल डाक्टर तलाशता हूँ।’
भैयाजी कहते हैं, ‘देख लो भैया। अस्पताल जाना हमें किसी सूरत में मंजूर नहीं। अस्पताल के बजाय सीधे मरघट जाना पसन्द करेंगे।’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश