डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा ‘अदालत में हिंदी’।  डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस लघुकथा रचने  के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 100 ☆

☆ लघुकथा – अदालत में हिंदी ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

अदालत में आवाज लगाई गई – हिंदी को बुलाया जाए। हिंदी बड़ी सी बिंदी लगाए भारतीय संस्कृति में लिपटी फरियादी के रूप में कटघरे में आ खड़ी हुई।

मुझे अपना केस खुद ही लड़ना है जज साहब ! – उसने कहा।

अच्छा, आपको वकील नहीं चाहिए ?

नहीं, जज साहब ! जब मेरी आवाज बन भारत  विदेशियों से  जीत गया तो मैं अपनी लड़ाई खुद नहीं लड़ सकती ?

ठीक है, बोलिए, क्या कहना चाहती हैं आप ?

जब देश स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था तब मैंने कमान संभाली थी। देशभक्ति की ना जाने कितनी कविताएं मेरे शब्दों में लिखी गईं। जब मैं कवि के शब्दों में कहती थी – जो भरा नहीं है भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं, वह ह्रदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं,  तब इसे सुनकर नौजवान  देश के लिए अपनी जान तक न्यौछावर कर देते थे।  मैं सबकी प्रिय थी,  कोई नहीं कहता था कि तुम मेरी नहीं हो। लेकिन अब  मेरे अपने देश के माता – पिता अपने बच्चों को मुझसे दूर रखते हैं, देश के नौजवान मुझसे मुँह चुराते हैं। इतना ही नहीं महाविद्यालयों में तो युवा मुझे पढ़ने से कतराते हैं। मेरे मुँह पर तमाचा- सा लगता है जब वे कहते हैं कि क्या करें तुम्हें पढ़कर ?  हमें नौकरी चाहिए, दिलवाओगी तुम ? जीने के लिए रोटी चाहिए,  हिंदी नहीं ! मैं उन्हें दुलारती हूँ, पुराने दिन याद दिलाती हूँ, कहती हूँ अच्छे दिन आएंगे परंतु वे मेरे वजूद को नकारकर अपना भविष्य संवारने चल देते हैं। जज साहब! मैं अपने ही देश में पराई हो गई। इस अपमान से मेरी  बहन बोलियों ने अपनी जमीन पर ही दम तोड़ दिया। मुझे न्याय चाहिए जज साहब! – हिंदी हाथ जोड़कर उदास स्वर में बोली।

अदालत में सन्नाटा छा गया। न्यायधीश महोदय खुद भी दाएं- बाएं झांकने  लगे। उन्होंने आदेश दिया –  गवाह पेश किया जाए।

हिंदी सकपका गई, गवाह कहाँ से लाए ? पूरा देश ही तो गवाह है, यही तो हो रहा है हमारे देश में – उसने विनम्रता से कहा।

नहीं, यहाँ आकर कटघरे में खड़े होकर आपके पक्ष में बात कहनेवाला होना चाहिए – जज साहब बोले।

हिंदी ने बहुत आशा से अदालत के कक्ष में  नजर दौड़ाई,  बड़े – बड़े नेता, मंत्री, संस्थाचालक वहाँ बैठे थे, सब अपनी – अपनी रोटियां सेंकने की फिक्र में  थे। किसी ने उसकी ओर आँख उठाकर देखा भी नहीं।

गवाह के अभाव में मुकदमा खारिज कर दिया गया।

©डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हरीश कुमार 'अमित'

हिंदी की दशा दर्शाती श्रेष्ठ लघुकथा।