डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘गाँव की धूल और नेता के चरन’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – गाँव की धूल और नेता के चरन ☆
नेताजी के गाँव के दौरे पर आने की खबर पहुँच चुकी थी। कलेक्टर और बहुत से छोटे अफसर साज़-सामान के साथ पहुँच चुके थे। कलश, फूलमाला वगैरः का मुकम्मल प्रबंध हो चुका था। गाँव के लोगों की एक भीड़ नेता जी के भाषण के लिए बनाये गये मंच के पास इकट्ठी होकर उत्सुकता से उनके आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। बच्चे और औरतें किलिर-बिलिर कर रहे थे।
नेता जी की कार आती दिखी और इंतज़ामकर्ताओं और दर्शकों में हरकत होने लगी। कार रुकी और उसके रुकते ही धूल का एक बड़ा ग़ुबार उठा और गाँव वालों के ऊपर बरस गया। गाँव वालों ने अपने गमछों से मुँह और कपड़ों की धूल झाड़ी।
नेता जी ने मोटर से उतर कर गाँव वालों को झुक कर नमस्कार किया। सरपंच के हाथों से माला पहनी। जब गाँव की स्त्रियों के द्वारा उनकी आरती उतारी गयी तो वे आँखें मूँदे, हाथ जोड़े खड़े रहे। यह सब हो गया तो नेता जी ने घूम कर गाँव का सिंहावलोकन किया। उनकी मुद्रा से ऐसा लगा जैसे वह गाँव को देख कर भाव-विभोर हो गये। उनका मुख प्रसन्नता के फैल गया और दोनों हाथ प्रशंसा के भाव से उठ गये।
नेताजी की इच्छानुसार उन्हें पूरे गाँव के राउंड पर ले जाया गया। नेताजी अगल-बगल के घरों में झुक झुक कर झाँकते जाते थे, हाथ जोड़कर नमस्कार करते जाते थे। गाँव की स्त्रियाँ घूँघट में दो उँगलियाँ लगाये उन्हें देख रही थीं। एक घर में से हाथ-चक्की चलने की आवाज़ आ रही थी। नेताजी एकाएक भाव-विभोर होकर उस घर की चौखट पर बैठकर ठुनकने लगे— ‘मैं तो चने की मोटी रोटी और चटनी खाऊँगा।’ कलेक्टर साहब ने बड़ी मुश्किल से उन्हें वहाँ से उठाया। नेताजी जैसे बड़ी अनिच्छा से दुखी मुँह लिये उठे। गाँव वाले उनकी सरलता को देखकर बहुत प्रभावित, एक दूसरे का मुँह देख रहे थे।
गाँव के चक्कर के बाद नेता जी का भाषण हुआ। नेताजी बोले, ‘भाइयो, मेरी मोटर और मेरे कपड़ों को देखकर आप समझते होंगे कि मैं बहुत सुखी हूँ। लेकिन मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस देश में आपसे ज्यादा सुखी कोई नहीं है। हम शहर में रहने वाले माटी की इस सुगंध के लिए, इस ताजी हवा के लिए, इन पेड़ों के लिए तरसते हैं। मैं शहर में रहता हूँ, लेकिन मेरी आत्मा भारत के गाँवों में घूमती रहती है। मेरे प्यारे ग्रामवासियो, तुम अपने को छोटा मत समझो। तुम हमारे अन्नदाता हो, हमारे मालिक हो। मैं आप लोगों को प्रणाम करता हूँ।’
नेता जी ने झुक कर गाँव वालों को नमस्कार किया।
नेता जी ने एक गाँव वाले को मंच पर बुलाया, जिसकी नीली कमीज़ पर पसीने की अनगिनत सफेद रेखाएं थीं। नेताजी ने उसे बगल में खड़ा करके उसकी कमीज़ की तरफ इशारा किया, बोले, ‘भाइयो, ये पसीने के निशान देखते हैं आप? यह पसीना गंगा के पानी से भी ज्यादा पवित्र है। आप अपनी गरीबी पर दुखी मत होइए। आज आपसे धनी कोई नहीं। आपके पास मेहनत की संपत्ति है, इसलिए आप गरीब होते हुए भी राजा हो और हम जैसे लोग निर्धन हैं।’
नेताजी ने गर्व से दाहिने-बायें देखा और सरपंच ने कलेक्टर के इशारे पर तालियाँ बजवा दीं।
भाषण खत्म करते हुए नेताजी बोले, ‘मेरे प्यारे गाँववासियो, मैं राजधानी में जरूर रहता हूँ, लेकिन मेरा दिल हमेशा आपके साथ रहता है। काम ज्यादा रहने के कारण आपके बीच में आने का सुख प्राप्त नहीं कर पाता। लेकिन मैं आपका आदमी हूँ। आप कभी राजधानी आयें तो मुझे सेवा का मौका दें। मेरा दरवाजा हर वक्त आपके लिए खुला रहेगा।’
कलेक्टर और सरपंच के इशारे पर गाँव वालों ने फिर तालियाँ बजायीं।
उधर नेताजी की कार के पास उनके ड्राइवर से एक ग्रामीण युवक बड़ी दीनता से बात कर रहा था। युवक ड्राइवर से बोला, ‘ड्राइवर साहब, शहर में हमारे लिए कुछ काम का जुगाड़ लगवा दो।’
ड्राइवर सिगरेट का कश खींचकर बोला, ‘किराये के पैसे हों तो दिल्ली आ जाना। वहाँ आकर नेता जी से विनती करना।’
युवक विनती के स्वर में बोला, ‘किराये के पैसे कहाँ हैं साहब? इसी मोटर में एक कोने में बैठा कर ले चलते तो बड़ी मेहरबानी होती।’
ड्राइवर ने सिगरेट मुँह से निकाल कर ठहाका लगाया, फिर हाथ झटकता हुआ बोला, ‘अरे भाग पगलैट, भाग यहाँ से। कैसे-कैसे पागल आ जाते हैं।’
युवक वहाँ से खिसक कर कुछ दूर जाकर चुपचाप खड़ा हो गया।
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈