श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 141 ☆

☆ ‌ आलेख ☆ ‌प्रेरणा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” ☆

वैसे तो प्रेरणा शब्द हिन्दी साहित्य के आम शब्दों जैसा ही है, लेकिन यह है बहुत महत्वपूर्ण,  इसका बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक महत्व है तथा इसका संबंध मानव मन की उर्जा से है, यह मानव के जीवन में उत्साह तथा उमंग का संचार करता है, उत्साहहीन मानव के जीवन से खुशियों के पल रूठ जाते हैं, और जीवन उद्देश्यविहीन हो जाता है। जब कि प्रेरित मानव जीवन में ऐसे-ऐसे काम कर जाता है, जिसकी उससे आप अपेक्षा नहीं किए होंगे।

इसका महत्व समझने के लिए हमें कुछ पौराणिक घटना क्रम पर विचार मंथन करना होगा।प्रेरक ही कार्य संचालन हेतु हृदय में प्रेरणा पैदा करता है प्रेरणा के गर्भ में उत्साह पलता है इसे हम पौराणिक काल में घटे कुछ घटना क्रम से समझते हैं।

उदाहरण नं १ – जरा उस समय की कल्पना कीजिये जब रामायण कथा लिखी जा रही थी। सीता हरण भी हो चुका था, उनका कुछ भी पता नहीं चल रहा था, सीता का पता लगाने के लिए, वानर राज सुग्रीव ने धमकी भरा चुनौती पूर्ण कार्य समस्त वानर समूहों को सौंपा गया था। और सुग्रीव द्वारा मधुवन में बिना कार्य सिद्धि के फल खाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। तथा बिना लक्ष्य पूरा किए असफल हो कर लौटने पर जान गंवाने का भय था।

उस समूह के संरक्षक जामवंत तथा तथा नायक श्री हनुमान जी महाराज को बनाया गया था, सारे वानर समूह भूख प्रयास से थके हारे उत्साह हीन हो समुद्र किनारे बैठ कर पश्चाताप कर रहे थे। उनकी प्रेरणा मर चुकी थी, सीताहरण की ख़बर मिल चुकी थी पता भी चल चुका था कि माता सीता सौ योजन दूर समुद्र के भीतर रावण की स्वर्ण नगरी लंका में कैद है। लेकिन प्रश्न यह था कि आखिर लंका जाएगा कौन। इसी पर सबकी क्षमताओं का आकलन हो रहा था कोई चार कोई छ कोई दस योजन जाने की बात कर रहा था युवराज अंगद ने भी अपनी क्षमता का वर्णन कर दिया था। स्पष्ट बता भी दिया था कि-

अंगद कहइ जाउँ मैं पारा।

जियँ संसय कछु फिरती बारा॥

अर्थात्- मैं जा तो सकता हूं। लेकिन लौट कर आने में संदेह प्रकट किया था। वहीं समूह के नायक वीर हनुमान मौन हो सिर झुकाए बैठे थे। ऋषि के श्राप के कारण उनका हृदय प्रेरणा हीन था। बल और बुद्धि भूल गए थे। एक किनारे बैठे थे उनकी हालत उस मनुष्य जैसी थी  कि जो धन की गठरी पर बैठा धन  न होने की चिंता में पड़ा हुआ हो। उसे इसका ज्ञान ही नहीं है वह अपार धन-संपदा का मालिक है। आखिर में चिंता ग्रस्त हनुमान जी को उनकी बल बुद्धि की याद जामवंत जी को दिलाना ही पड़ा-

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।

का चुप साधि रहेहु बलवाना।।

पवन तनय बल पवन समाना।

बुधि बिबेक बिग्यान निधाना।।

और उस प्रेरक वचन के सुनते ही हनुमान जी का बल पौरुष जाग उठा था और शक्ति प्रदर्शन का मूल श्रोत बना जय श्री राम का उद्घोष।  फिर क्या था- 

जेहि गिरि चरन देइ हनुमंता|

चलेउ सो गा पाताल तुरंता||

उदाहरण नं २ – उस दृश्य की कल्पना कीजिये जब गांडीवधारी अर्जुन युद्ध क्षेत्र में मोह ग्रस्त खड़ा है, उसे युद्ध क्षेत्र में मृत्यु के पदचाप की आहट सुनाई दे रही है लेकिन प्रेरणा हीन अर्जुन भीख मांग कर खाने की बातें कर रहा है लेकिन, युद्ध करने से भाग रहा है क्यों कि हताशा निराशा ने उसे घेर रखा है जो बार-बार उसे कर्त्तव्य पथ से विमुख कर रहा है लेकिन भगवान श्री कृष्ण के प्रेरक वचनों ने अर्जुन के हृदय में प्रेरणा जगाई, और परिणाम महाभारत युद्ध में उसकी विजय। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सफलता का प्रयास प्रेरणा के गर्भ में पलता है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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