डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर विचारणीय कहानी  ‘एटिकेट ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 159 ☆

☆ कहानी – एटिकेट

गौरी के सामने वाले मकान में नये किरायेदार आ गये हैं। युवा पति-पत्नी और बूढ़ी माँ। दो छोटे बच्चे हैं, दोनों बेटे। बड़ा चार पाँच साल का होगा और छोटा ढाई तीन का। गौरी का मन बार-बार उस घर में जाने के लिए उझकता है। संबंध बनाने और निभाने की उसे आदत है। नये लोगों के प्रति मन में उत्सुकता है। लेकिन उसकी आदत छिद्रान्वेषण या निन्दा-पुराण की नहीं है। अभी तक पड़ोसियों से उसके संबंध प्रेम और मैत्री के रहे हैं और शहर छोड़ देने के बाद भी गौरी से उनका प्रेम-सूत्र अक्षत रहता है।
जल्दी ही पता चल गया कि सामने वाले दंपति सक्सेना हैं। बड़े लड़के का घर का नाम पिंटू और छोटे का गोलू है। बच्चे सुन्दर और प्यारे हैं। गौरी का उस परिवार से खाने-पीने की चीज़ों के आदान-प्रदान का सिलसिला चल पड़ा है।

उनका छोटा बेटा गोलू खूब नटखट और चंचल है। माँ-बाप ने अभी से उसे किसी नर्सरी में डाल दिया है। सवेरे से स्कूल की ड्रेस में सज-धज कर नेकर की जेबों में हाथ डाले गेट के सामने घूमता है तो बहुत भला लगता है। स्कूल जाने के नाम पर रोता नहीं, खुश खुश चला जाता है।

गोलू खूब सवेरे उठकर बाहर आ जाता है। घर के गेट का ‘लैच’ ऊपर से बन्द रहता है, लेकिन उसे खोलने की तरकीब उसने ढूँढ़ ली है। बन्दर की तरह गेट पर चढ़कर वह ‘लैच’ को पलट देता है और फिर उतरकर धक्का मारकर गेट को खोल देता है। इसके बाद जिधर मुँह घूम जाए, चल देता है। माँ-बाप जब बाहर आकर देखते हैं तो या तो पास के किसी घर के सामने रेत के ढेर पर खेलता मिलता है या फिर किसी पिल्ले को चूमते-चाटते। मुहल्ले में लोग उसे जानने लगे हैं, इसलिए कभी लंबा निकल जाए तो कोई न कोई हाथ पकड़ कर घर तक छोड़ जाता है।

गौरी का बेटा टीनू पाँच साल का है।एक दिन गोलू टीनू के पीछे पीछे गौरी के घर में दाखिल हो गया। वैसे भी वह फक्कड़ और मनमौजी है। किसी भी घर में घुसकर वहाँ खेलकूद में मस्त हो जाने में उसे कोई दिक्कत नहीं होती। जब भूख या नींद लगती है तभी उसे घर की याद आती है।

गौरी के घर में आकर भी वह टीनू के खिलौनों की छीन-झपट में लग गया। टीनू को अपने खिलौनों से मोह है, किसी को देने में तकलीफ होती है। इसलिए थोड़ी देर खूब हंगामा हुआ। टीनू खिलौनों को अपनी तरफ खींचता था तो गोलू अपनी तरफ। खिलौनों को हाथ आते न देख गोलू ने चिल्ला चिल्ला कर रोना शुरू कर दिया। गौरी ने आकर टीनू को समझाया और गोलू को खिलौने दिलवाये। गोलू खिलौने समेटकर एक कोने में जम गया और दीन-दुनिया को भूल कर खेलने में व्यस्त हो गया।

तब से गौरी के घर में गोलू के आने का सिलसिला शुरू हो गया। वह खिलौने लेकर एक तरफ जम जाता और फिर घर-द्वार भूल जाता। माँ आवाज़ देती तो कहता, ‘अबी नईं आयेंगे’ या ‘थोला लुको, आते हैं।’ माँ बुला बुला कर परेशान हो जाती, लेकिन उस पर कोई असर न होता। अन्ततः गौरी ही उसे समझा-बुझा कर घर भेजती।

घर जाते वक्त वह किसी खिलौने को कंधे से चिपका कर चल देता। फिर उसके और टीनू के बीच खींचतान और हंगामा होता। गौरी टीनू को समझा-बुझा कर खिलौना उसे दे देती, कहती, ‘सवेरे वापस आ जाएगा।’ सवेरे तक गोलू की माँ खिलौना लौटा जाती, तब टीनू को संतोष होता।

आज की संस्कृति के हिसाब से गोलू एकदम नासमझ था। टीनू कुछ खाने को मेज़ पर बैठता तो वह भी बगल की कुर्सी पर जम जाता, कहता, ‘हमें भी दो। हम भी खायेंगे।’ एक बार लेने पर मन न भरता तो कहता, ‘औल दो। खतम हो गया।’ टीनू हँसता। उसे गोलू की बातें अजीब लगती थीं। उसे स्कूल और घर में ‘एटीकेट’ की शिक्षा दी गयी थी। उसे सिखाया गया था कि चीज़ों की माँग सिर्फ अपने घर में करनी है। दूसरे घर में कोई दे तब भी ‘थैंक यू’ कह कर मना कर देना है। उस घर के लोग खाने पीने के लिए बैठने लगें तो धीरे से खिसक लेना है। लेकिन गोलू अभी शिक्षित नहीं है। नादान और भोला है। अभी उस पर नयी तालीम और तहज़ीब का असर नहीं है।

बाहर पॉपकॉर्न बेचने वाला आवाज़ लगाता है तो टीनू की फरमाइश पर गौरी खरीदने जाती है। तभी सामने से गोलू प्रकट हो जाते हैं। कहते हैं— ‘हमें भी।’ जब तक उनके माँ या बाप बाहर निकलते हैं तब तक वे पॉपकॉर्न का पैकेट लेकर चल देते हैं। यही हाल गुब्बारे वाले के आने पर होता है। टीनू को गुब्बारे अच्छे लगते हैं लेकिन खरीदते वक्त अपना हिस्सा लेने के लिए गोलू हाज़िर हो जाते हैं। गुब्बारा देने में थोड़ी भी टालमटोल हो तो वहीं हाहाकार शुरू हो जाता है। उसकी फरमाइशों पर गौरी को भी मज़ा आता है।

कई बार गोलू की माँ संकोच में पड़ जाती है लेकिन गौरी उन्हें समझा देती है। कहती है, ‘वह अपना अधिकार समझ कर माँगता है। उसके मन में भेद नहीं है, न वह तेरा-मेरा जानता है। आप खामखाँ परेशान होती हैं।’

कुछ दिनों से गोलू का आना कम हो गया है। शायद उसे कोई और अड्डा मिल गया है। वैसे बीच की सड़क पर अब भी वह खेलता या कहीं भी आराम से टाँगें पसारकर अपने में मशगूल दिख जाता है। उसका स्कूल जाना बदस्तूर ज़ारी है।

एक दिन गोलू की माँ गप-गोष्ठी के इरादे से गौरी के घर आ गयी। पीछे पीछे गोलू था। पहले से थोड़ा बड़ा और शान्त हो गया था। आने पर उसने पहले की तरह खिलौनों की तरफ ताक- झाँक नहीं की। अच्छे बच्चों की तरह शान्त कुर्सी पर बैठा रहा।

थोड़ी देर में गौरी फ्रिज खोल कर उसके लिए चॉकलेट ले आयी। उसकी तरफ बढ़ा कर बोली, ‘लो बेटे।’

गोलू ने अपने हाथ पीछे बाँध लिये, माँ की तरफ देख कर बोला, ‘नईं।’

गौरी को आश्चर्य हुआ, कहा, ‘क्या नखरा करता है! ले ले।’

गोलू ने चॉकलेट की तरफ और फिर माँ की तरफ देखा, फिर वैसे ही हाथ पीछे किये हुए बोला, ‘नईं, हम नईं लेंगे।’

उसकी माँ ने कहा, ‘ले ले बेटे, आंटी दे रही हैं।’

गोलू ने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाकर चॉकलेट ले ली, फिर कहा, ‘थैंक यू, आंटी।’

उसकी माँ का चेहरा गर्व से दीप्त हो गया। बोलीं, ‘स्कूल में सिखाया है। अब पहले जैसे नहीं करता। कोई कुछ देता है तो मना कर देता है। ‘थैंक यू’ कहना भी सीख गया है।’
गौरी गोलू का मुँह देखती रह गयी। उसे लगा एक और बच्चा ईश्वर की दुनिया से निकल कर आदमी की दुनिया में दाखिल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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