श्रीमती सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “तर्पण…”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 138 ☆
☆ लघुकथा 🤲तर्पण 🤲
कमल शादी होकर आई। बहुत सुंदर सपने संजोए, अपना मन और घर को संभालने में लगी थी। फिल्मों की तरह उसके मन में भी अनेक विचार आते थे, कि पति का प्यार उसे सदैव अपना बनाकर सुखद अनुभूति कराएगा।
परंतु स्वराज को इन सब बातों से कोई मतलब नहीं था। वह शादी को एक समझौता और परिवार की पसंद या जरूरत समझता था। यही कारण था कि दो बच्चे होने के बाद भी कमल को पति या घर कभी अपना नहीं लगा।
लगता था कि किसी मजबूरी या माता-पिता के सम्मान को देखते हुए सब करना पड़ रहा है। स्वराज घर को छोड़कर चारों तरफ भटकता फिरता।
नौकरी होते हुए भी वह पैसे-पैसे का मोहताज हो चुका था और शायद इसी गम से एक दिन दुनिया को छोड़ चला।
कमल कभी खुलकर हँस खिल भी न सकी।
आज गंगा जी में तर्पण कर तिलांजलि दे रही थी।
मन में एक नई सोच ले कर डुबकी लगाकर बाहर निकली। तट पर खड़े बच्चों को लिया और बाहर मुस्कराते हुए रिक्शा पर सवार होकर बच्चों से कहने लगी…. “बेटा कीचड़ में ही कमल खिलता है। देखो तट के किनारे कीचड़ में लगे कमल के पुष्पों को।”
दोनों बच्चे इस बात को समझ ना सके। परंतु, आज मम्मी का उत्साह से भरा उनका सुंदर दमकता हुआ चेहरा उनको बहुत अच्छा लगा।
दोनों बच्चों को बाहों में लिए कमल चली जा रही थी, एक नए विश्वास की डगर पर।
© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈