डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख नींद और निंदा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 151 ☆

☆ नींद और निंदा 

‘नींद और निंदा पर जो विजय पा लेते हैं, वे सदा के लिए अपना जीवन सुखी बना लेते हैं’ अकाट्य सत्य है। नींद एक ओर आलस्य का प्रतीक है, तो दूसरी ओर अहं का। प्रथम में मानव आलस्य के कारण कुछ भी करना नहीं चाहता और अंत में भाग्यवादी हो जाता है। वह उसमें विश्वास करने लग जाता है कि समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! वह परिश्रम करने से ग़ुरेज़ करने लगता है। ऐसे व्यक्ति पर किसी की सीख का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि सोते हुए को तो जगाया जा सकता है, परंतु जागते हुए को जगाना कठिन ही नहीं, असंभव होता है। ऐसा व्यक्ति तर्क-वितर्क व विवाद के माध्यम से स्वयं को व अपनी बात को ठीक सिद्ध करने का प्रयास करता है, क्योंकि वह परिश्रम में नहीं, भाग्य में विश्वास रखता है। सो! वह अकारण दु:खों से घिरा रहता है और उसे कदम-कदम पर पराजय का मुख देखना पड़ता है, क्योंकि आलस्य इसका मूल कारण है।

निंदा आत्मघाती भाव है, जिसमें व्यक्ति निंदा करते हुए भूल जाता है कि वह छिद्रान्वेषण कर अपने समय की हानि व आत्मिक शक्तियों का ह्रास कर रहा है। इस प्रकार परदोष दर्शन उसका स्वभाव बन जाता है। इसके विपरीत वह व्यक्ति अपने दोषों से अवगत हो जाता है और उनसे मुक्ति पाने का भरसक प्रयास करता है, जिससे उसके जीवन में चामत्कारिक परिवर्तन हो जाता है। तदोपरांत वह निरंतर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है। शायद! इसीलिए ही कबीरदास जी ने निंदक को अपने घर-आँगन व उसके आसपास रखने का सुझाव दिया है, क्योंकि ऐसे लोग नि:स्वार्थ भाव से आपके हित में कर्मशील रहते हैं तथा अपना अमूल्य समय नष्ट करते हैं। दूसरे शब्दों में वे आपके सबसे बड़े हितैषी होते हैं।

मालवीय जी के मतानुसार ‘जो व्यक्ति अपनी निंदा सुन लेता है; संपूर्ण जगत् पर विजय प्राप्त कर लेता है।’ परंतु जो अपनी निंदा सुनकर अपना आपा खो बैठता है, अपने समय व शक्ति का ह्रास करता है। अक्सर वह तुरंत प्रतिक्रिया देता है, जो प्रज्ज्वलित अग्नि में घी का काम करता है। दूसरी और जो व्यक्ति निंदा सुन कर आत्मावलोकन करता है; अपने अंतर्मन में झांकने के पश्चात् दोषों से मुक्ति पाने का प्रयास करता है; वह जीवन में उस मुक़ाम पर पहुंच जाता है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी। महात्मा बुद्ध के शब्दों में ‘सबसे उत्तम वह है, जो स्वयं को वश में रखे और किसी बात पर उत्तेजित ना हो।’ वास्तव में अहंकार व क्रोध मानव के सबसे बड़े शत्रु हैं। वैसे तो अहं व वहम दोनों मानव की उन्नति में अवरोधक होते हैं। अहं अर्थात् सर्वश्रेष्ठता का भाव उसे परिश्रम नहीं करने देता, क्योंकि उसे वहम हो जाता है कि उससे अच्छा काम कोई कर ही नहीं सकता। सो! वह कभी भी अहं के मायाजाल से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। ऐसा व्यक्ति आत्मघाती होता है, जो अपने पाँवों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारता है और आत्मविश्वास को खो बैठता है।

विलियम जेम्स के शब्दों में ‘विश्वास उन शक्तियों में से एक है, जो मनुष्य को जीवित रखती हैं। विश्वास का पूर्ण अभाव ही जीवन का अवसान है। आत्मविश्वास मानव की सर्वोत्तम धरोहर है, जिसके बल पर वह असाध्य कार्य कर गुज़रता है।’ वह दाना मांझी की तरह वर्षों के कठिन परिश्रम के पश्चात् पर्वतों को काटकर सड़क का अकेले निर्माण कर सकता है। यही है सफलता का सर्वोत्तम सोपान। ‘जीवन चलने का नाम/ चलते रहो सुबहोशाम’ गीत की पंक्तियाँ जीवन में निरंतर गतिशील रहने को प्रेरित करती हैं और मन में यह विश्वास जाग्रत करती हैं कि घने बादल व विशालकाय पर्वत भी मानव के पथ की बाधा नहीं बन सकते। वहीं संतोषानंद जी के गीत के बोल इस भाव को पुष्ट करते हैं– ‘तुम साथ ना दो यारो/ चलना मुझे आता है/ हर आग से वाक़िफ हूं/ जलना मुझे आता है’  इस तथ्य को उजागर करता है कि मानव आत्मविश्वास के बल पर बड़ी से बड़ी आपदा का सामना करने में समर्थ है। परंतु शर्त यही है कि वह निंदा से पथ-विचलित न हो, बल्कि उससे सीख लेकर आत्म-परिष्कार कर निरंतर आगे बढ़ता जाए, क्योंकि बीच राह से लौट जाना कारग़र नहीं है। आत्मविश्वासी व्यक्ति सदैव सफलता प्राप्त कर विजयी होते हैं और कहते हैं ‘देखना है ग़र मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊँचा कर दो आसमान को।’ वे पक्षियों की भांति आकाश की बुलंदियों को छूने का जज़्बा रखते हैं। परंतु इसके लिए आवश्यक है सकारात्मक सोच का होना और स्व-पर व राग-द्वेष को तज निष्काम भाव से परहितार्थ कर्म करना।

स्वेट मार्टेन के मतानुसार ‘जिस प्रकार वनस्पतियों को सूर्य से जीवन प्राप्त होता है, उसी प्रकार आशा भाव से अपनों में जीवन संचरित होता है।’ निरंतर सफलता हमें संसार का एक पहलू दर्शाती है और विपत्ति हमें चित्र का दूसरा पहलू  दिखाती है। कोल्टन मानव को विपत्तियों में अडिग रहने का संदेश देते हैं। मुझे स्मरण हो रही है मेरे प्रथम काव्य-संग्रह शब्द नहीं मिलते की पंक्तियाँ ‘दु:ख से ना घबरा मानव/ सुख का सूरज निकलता रहेगा।’ सुख-दु:ख, पूनम-अमावस, वसंत-पतझड़ व दिन-रात क्रमानुसार अनुसार आते-जाते रहते हैं। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए, अन्यथा वह हमें तनाव व अवसाद की स्थिति में ले जाता है, जहाँ उसे कोई भी अपना नहीं भासता और वह दु:खों के सागर के अथाह जल में डूबता-उतराता रहता है। उसे जीवन में आशा की किरण तक दिखाई नहीं पड़ती और उसका जीवन नरक-तुल्य बन जाता है। ‘प्रभु सुमरन कर ले बंदे! यही तेरे साथ जाएगा।’ ऐसी स्थिति से उबरने का एकमात्र साधन प्रभु का नाम-स्मरण है, जो उसे भव से पार उतार सकता है। इसलिए मानव के लिए अधिक नींद व निंदा दोनों स्थितियाँ घातक होती है और वे दोनों रास्ते का पत्थर बन अवरोध उत्पन्न कर सकती हैं। ऐसी स्थिति में मानव कभी भी अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं कर सकता।

© डा. मुक्ता

31.8.22

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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