हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से ☆ सुख – दुःख ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले
श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी रचना सुख – दुःख. अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकेंगे. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 9 – विशाखा की नज़र से ☆
☆ सुख – दुःख ☆
मैंने दुःख को विदा किया
कभी ना लौट आने के लिए
वो सुख की चादर ओढ़ आया
मेरे निश्चय की आजमाइश में ।
उसने विदाई का सम्मान किया
बस दूर खड़े रह सुख का नाट्य किया
हाथों में गुब्बारे लिए उसने
मेरे बालमन को लोभित किया
कभी वो ख़्वाबों की तश्तरी लाया
कभी रंग -बिरंगी तितलियाँ लाया
मेरी बढ़ती ताक -झाँक को
उसकी नजरो ने जान लिया
दुःख था बड़ा बहुरूपिया
समझता था मेरी कमजोरियाँ
हर उस शख्स का उसने रूप धरा
जिससे कभी था मेरा नाता जुड़ा
सब्र का मेरे बांध ढहा
हल्के से मन का किवाड़ खुला
दहलीज पर जो मैंने कदम रखा
मृगमरीचिका सा भरम हुआ
मैं दौड़ पड़ी उस ओर
सुख की चाह थी पुरजोर
उसने भी चादर फैला के मुझे
अपने अंक में समेट लिया
मै पहुँची अंध लोक
बस सुख की ही थी खोज
सुख का स्पर्श मुझे याद था
पर वहाँ कही ना उसका आभास था
मेरी आँखों से अश्रु बहे
सुख चाहे पर दुःख मिले
क्यों पुराने पाठ ना याद रहे
सुख -दुःख सदा ही साथ रहे ।
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र