डॉ कुंदन सिंह परिहार
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक मज़ेदार व्यंग्य ‘लेखक के पत्र, मित्र के नाम’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ व्यंग्य – लेखक के पत्र, मित्र के नाम ☆
📩 पत्र क्रमांक – 1 📩
प्रिय बंधु,
मेरा पत्र पाकर आपको आश्चर्य होगा। याद दिला दूँ कि हम 2019 में लखनऊ के लेखक सम्मेलन में मिले थे। तब मैंने आपको अपनी सात किताबें भेंट की थीं। आपको जानकर खुशी होगी कि इस साल विविध विधाओं में मेरी 135 पुस्तकें लुगदी प्रकाशन संस्थान,दिल्ली से प्रकाशित हुई हैं। इन्हें देखकर आपको महसूस होगा कि मेरी प्रतिभा कैसे दिन दूनी,रात चौगुनी निखर रही है। कनाडा में निवासरत अंतर्राष्ट्रीय कवयित्री रेणुका देवी ने मेरी किताबों के आवरण पर ही तीन पेज का लेख लिखा है। उन्होंने लिखा है कि कवर इतने सुन्दर हैं कि किताबों को खोलने की इच्छा ही नहीं होती। मैं अपनी 135 किताबें आपके पास भेजना चाहता हूँ ताकि आप और आपके मित्र उन्हें पढ़कर आनन्द प्राप्त करें। आपका उत्तर प्राप्त होते ही पुस्तकें रवाना कर दी जाएँगीं।
आपका
प्रीतम लाल ‘निरंकुश’
📩 उत्तर क्रमांक – 1 📩
भाई साहब,
आपका पत्र प्राप्त हुआ। 135 पुस्तकों के प्रकाशन पर मेरी बधाई लें। आपने ये पुस्तकें भेजने की बात लिखी है। मेरी दिक्कत यह है कि मैं उच्च रक्तचाप का मरीज़ हूँँ और अचानक इतनी किताबों को सँभाल पाना मेरी कूवत से बाहर है। दूसरी बात यह कि मेरे पास लेखक-मित्रों से प्राप्त इतनी किताबें इकट्ठी हो चुकी हैं कि उन्हें रखने के लिए घर में जगह नहीं बची है। मेरी पत्नी अलमारी से बची किताबों को चार बोरों में भरकर स्टोर में रख चुकी है। मुझे डर है कि किसी दिन मेरी अनुपस्थिति में वे कबाड़ी को सौंप दी जाएँगीं। इसलिए आप फिलहाल किताबें भेजने के अपने इरादे को स्थगित रखें। स्थितियाँ अनुकूल होने पर मैं स्वयं आपको सूचित करूँगा।
आपका
सज्जन लाल
📩 पत्र क्रमांक – 2 📩
बंधुवर,
आपका पत्र मिला। आपके स्वास्थ्य का हाल जानकर चिन्ता हुई, लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि ब्लड-प्रेशर होने से किताबों को सँभालने में क्या दिक्कत हो सकती है। आप मेरे घर आएँगे तो देखकर ही आपका ब्लड-प्रेशर बढ़ जाएगा। सब तरफ मेरी किताबें अँटी पड़ी हैं। तिल धरने को जगह नहीं है। अतिथि आते हैं तो उन्हें किताबों के बंडल पर ही बैठाना पड़ता है। आपने किताबों के लिए स्थानाभाव की बात लिखी तो मेरा एक सुझाव है। मैं आपके पास एक अलमारी की कीमत भेज दूँगा। उस अलमारी में सिर्फ मेरी किताबें रखी जाएँ। उसमें किसी अन्य लेखक की घुसपैठ न हो। आपका उत्तर मिलते ही राशि भेज दूँगा।
आपका
प्रीतम लाल ‘निरंकुश’
📩 उत्तर क्रमांक – 2 📩
भाई साहब,
अलमारी के लिए पैसे भेजने के आपके प्रस्ताव के लिए आभारी हूँँ, लेकिन समस्या वह नहीं है। समस्या यह है कि अलमारी रखने के लिए जगह नहीं बची है। अतः एक ही रास्ता है कि ऊपर एक हॉल बनवाकर किताबों की सारी अलमारियाँ वहाँ प्रतिष्ठित कर दी जाएँ। इसमें कम से कम डेढ़ दो लाख का व्यय आएगा। यदि आप इसमें पच्चीस तीस हज़ार का योगदान कर सकें तो आभारी हूँगा। फिर आप अपनी कितनी भी पुस्तकें भेज सकेंगे। अन्य लेखक-मित्रों से भी अनुरोध कर रहा हूँ। मैं वादा करता हूँ कि चार छः साल में व्यवस्था करके सबके पैसे लौटा दूँगा। आप विचार करके यथाशीघ्र सूचित करें।
आपका
सज्जन लाल
📩 पत्र क्रमांक – 3 📩
भाई साहब,
मुझे इल्म नहीं था कि आप मेरे साथ मसखरी करेंगे। मैं भला आपको पच्चीस तीस हजार रुपये क्यों देने लगा? उतने में मैं अपनी दो किताबें और छपवा लूँगा। मैं आपको अपनी 135 किताबें मुफ्त में दे रहा हूँ, और आप मज़ाक कर रहे हैं! सो इट इज़ योर लॉस, नॉट माइन। आपको मेरी किताबों की कद्र नहीं है तो हज़ारों और कद्रदाँ हैं। अब ये किताबें किसी और भाग्यशाली को मिलेंगीं। नमस्कार।
भवदीय
निरंकुश’
© डॉ कुंदन सिंह परिहार
जबलपुर, मध्य प्रदेश
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈