श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी द्वारा आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को श्री मनोज जी की भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकते हैं।
मनोज साहित्य # 55 – मनोज के दोहे…. ☆
1 तृषा
मानव की यह तृषा ही, करवाती नित खोज।
संसाधन को जोड़कर, भरती मन में ओज।।
2 मृषा
नयन मृषा कब बोलते, मुख से निकलें बोल।
सच्चाई को परखने, दोनों को लें तौल।।
प्रिये मृषा मत बोलिए, बनती नहीं है बात।
पछताते हम उम्र भर, बस रोते दिन-रात।।
3 मृदा
कृषक मृदा पहचानता, बोता फिर है बीज।
लापरवाही यदि हुई , वह रोया नाचीज।।
4 मृणाल
कीचड़-बीच मृणाल ने, दिखलाया वह रूप।
पोखर सम्मानित हुआ, सबको लगा अनूप।।
पोखर में मृणाल खिले, मुग्ध हुआ संसार।
सूरज का पारा चढ़ा, प्रकृति करे मनुहार।।
5 तृषित
तृषित रहे जनता अगर, नेता वह बेकार।
स्वार्थी नेता डूबते, नाव फँसे मँझधार ।।
© मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
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