डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  वैश्विक महामारी और मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 155 ☆

☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆

बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नयी शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’…में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़…जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है अर्थात् वह भी सही है… तो सारे विवाद, संवाद में बदल जाते हैं और सभी समस्याओं का समाधान स्वयंमेव निकल आता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?

मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट’ का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं और ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रुतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन ना जाइ’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्त्तव्य व दायित्व है। सो! वहाँ यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के लिए जीने की वजह बन जाते। हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता और महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं स्वत: समूल नष्ट हो जातीं।

आइए! हम इसके दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें कि ‘हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, बल्कि स्वयं पर विश्वास करना चाहिए, क्योंकि उम्मीद हमेशा टूटती है’ में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता, परेशानी व तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं, क्योंकि उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। उस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए; सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।

अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पाँव पसारती बलवती इच्छाओं-आकांक्षाओं पर अंकुश लगाइए। इस सिक्के के दो पहलू हैं..प्रथम है– इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है–दूसरों से अपेक्षा न रखना। यदि हम प्रथम अर्थात् इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वयंमेव हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा ख़ुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।

‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष, फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में, मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन, अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर प्रयास व अभ्यास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह चिंतनीय है, मननीय है, विचारणीय है।

जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे। उस स्थिति में तो बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियाँ में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात्, मुसाफिर की भांति संसार- रूपी सराय में विश्राम करेंगे; चंद दिन ठहरेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का समयानुसार आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर; उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन…हमें सृष्टि- नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि उसकी महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।

अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को आगामी पीढ़ी को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा स्वयं बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं, एक दिन वही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता खुद करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख अपना सहारा ख़ुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थककर न बैठें और न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की– यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। उस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, कटुता, तनाव, अलगाव व अवसाद का शमन हो जायेगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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