श्री अरुण श्रीवास्तव
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा श्रंखला “ कहानियां…“ की अगली कड़ी ।)
☆ कथा कहानी # 55 – कहानियां – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
ये बैंक में प्रमोशन और फिर ट्रांसफर का किस्सा है, हकीकत भी तो यही है. किसी शहर मे रहने के जब आप आदतन मुजरिम बन जाते हैं, आपके अपने टेस्ट के हिसाब से दोस्त बन जाते है, पत्नी की सहेलियां बन जाती हैं और किटी पार्टियां अपने शबाब पर होती हैं, बच्चे उनके स्कूल से और दोस्तों से हिलमिल जाते हैं. आप ये जान जाते हैं कि डाक्टर कौन से अच्छे हैं, रेस्टारेंट कौन सा बढ़िया है, चाट कौन अच्छी बनाता है और आप समझदार हैं कि बाकी चीज़ें कंहा कहां अच्छी मिलती हैं, डिटेल में जाने की जरूरत नहीं है, तब बैंक प्रमोशन टेस्ट की घोषणा कर देता है. मंद मंद गति से बहती, हवा और चलती ट्रेन रुक जाती है. कई तरह की प्रतिक्रियायें होना शुरु हो जाता है.
शायद यह शाश्वत सत्य है कि प्रमोशन का अविष्कार पत्नियों ने किया है. ईमानदारी की बात तो ये भी है कि कोई भी समझदार पर विवाहित पुरुष प्रमोशन चाहता नहीं है क्योंकि बाद में होने वाली खौफनाक पोस्टिंग से उसको भी डर लगता है पर पत्नी जी का क्या? और अगर आप किसी बैंक कालोनी में रह रहे हैं तो जाहिर है कि कैसे कैसे ताने, उलाहने, चुनोतियों का सामना करना पड़ता है. “देखिये जी ! इस बार अच्छे से तैयारी करना, फेल मत हो जाना हर बार की तरह, वरना आपका क्या आप तो हो ही बेशरम, मुझे तो कालोनी में सबको फेस करना पड़ता है, या तो अच्छे से पढ़कर पास होना वरना फिर मकान बदल लेना. आप करते क्या हो बैंक में. सबसे पहले बैंक जाते हो, सबसे बाद में आते हो फिर आपका क्यों नहीं होता प्रमोशन. वो देखिये, शर्मा जी अभी दो साल पहले तो आये थे और फिर प्रमोट होकर जा रहे हैं. आप भी कुछ सीखो, भोले भंडारी बने बैठे हो. काम करने से कुछ नहीं होता, बॉस को भी खुश रखना पड़ता है. याने बैंक में काम करने वाले पतियों से बेहतर उनकी पत्नियों को मालुम रहता है कि बैंक में प्रमोशन कैसे लिया जाता है. “
प्रमोशन प्रक्रिया में पहले लिखित परीक्षा होती है. पहले तो स्केल 5 तक के लिये written test होते थे. हमारे बैंक में लोग परीक्षा के लिये पढ़ाई करते थे तो दूसरे बैंक इस cooling period में नये बिजनेस एकाउंट कैप्चर कर लेते थे. समझ से बाहर था कि बीस साल की नौकरी के बाद भी साबित करो कि आप बैंकिंग जानते हो. खैर बाद में ये सुधार हुआ और बैंक ने बिज़नेस को priority दी. प्रमोशन होने के बाद और पोस्टिंग के पहले के दिन उसी तरह तनाव मुक्त होते हैं जैसे शादी के बाद और गौने के पहले वाले दिन. ब्रांच में आपको भी काबिल मान लिया जाता है हालांकि पीठ पीछे की कहानी अलग होती है. ” कैसे हो गया यार, आजकल कोई भी हो जाता है, मुकद्दर की बात है वरना अच्छे अच्छे लोग रह गये और इनकी लाटरी निकल गई, कोई बात नहीं, हम तो कहते हैं अच्छा ही हुआ, कम से कम ब्रांच से तो जायेगा. इस सबसे बेखबर खुशी में मिठाई बांटी जाती हैं, दो तीन तरह की पार्टियां दी जाती हैं. फिर आता है पोस्टिंग का टाईम और फिर शुरु होता है जुगाड़ या फरियाद का दौर. यूनियन, ऐसोसियेशन, मैनेजमेंट हर तरफ कोशिश की जाने लगती है. ऐसे नाज़ुक वक्त पर सबसे ज्यादा मजे लेते हैं HR वाले केकयी बनकर. उनके डायलाग, “देखो इंटर माड्यूल की तो पालिसी है, प्रमोटी तो रायपुर ही जाते हैं और फिर वहां से बस्तर रीज़न”, आप निराश होकर और बस्तर को अपना राज्याभिषेक के बाद अपना वनवास मानकर फिर फरियाद जब करते हैं कि आप की तो वहां पहचान है कुछ ठीक ठाक पोस्टिंग करवा दीजिये तो मंथरा की मुस्कान के साथ आश्वस्त करते हैं कि यार 300 किलोमीटर के बाद तो सर्किल ही बदल जाता है, उससे आगे तो चाहेंगे तो भी नहीं कर पायेंगे. फिर तो लगने लगता है कि बैंक में हैं या Border Security Force में. जबलपुर के सदर के इंडियन काफी हाउस में वेज़ कटलेट और फिल्टर काफी का सेवन करने वाला बंदा सुकमा या बीजापुर पोस्टिंग के शुरुआती दौर में वहां भी इंडियन काफी हाउस ढूंढता है, फिर कुछ वहां के स्टाफ के समझाने से ये समझ पाकर कि इंडियन तो हर जगह हैं, काफी बाजार से खरीद कर अपने जनता आवास में खुद बनाकर पीता है और किशोर कुमार का ये गाना बार बार सुनता है “कोई लौटा दे मेरे बीते हुये दिन”.
जारी रहेगा…
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈