डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण गीत – तुम कैसे सब सहती हो ।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 113 – गीत – तुम कैसे सब सहती हो ✍

पल-पल विकल हुआ करता हूं तुम कैसे सब सहती हो।

कली सरीखी सुबह चटकती छा जाती है अरुणाई

एहसासों का सूरज सिर पर छाया करती पहुनाई

छाया कहां दहा करती है लगता तुम ही दहती हो।

लगता समय बहा जाता है कौन कहां पर ठहरा है

कामयाब क्या होगी मरहम गांव जहां पर गहरा है

नीर नयन से बहता रहता लगता तुम ही बहती हो।

क्षण भर भूल नहीं पाता हूं याद कहां से आएगी

भूल भटक कर आ भी जाए छवि अपनी ही पाएगी

ध्यान और धूनी में क्या है केवल तुम ही रहती हो ।

पल-पल विकल हुआ करता हूं तुम कैसे सब सहती हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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