डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है.  आज की लघुकथा में  डॉ परिहार जी ने चुनाव के पूर्व एवं चुनाव के बाद नेताजी के व्यवहार परिवर्तन का बड़ा ही सजीव वर्णन किया है।  यह  किस्सा तो हर के बाद का है यदि जीत के बाद का होता तो भी शायद यही होता ? ऐसी सार्थक लघुकथा  के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनकी  का ऐसे ही विषय पर एक लघुकथा  “चुनाव के बाद”.)
.
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 25 ☆

☆ लघुकथा – चुनाव के बाद ☆

 

महान जनसेवक और हरदिल-अज़ीज़ नन्दू बाबू चुनाव में उम्मीदवार थे। आठ दिन में वोट पड़ने वाले थे। नन्दू बाबू के घर में चमचों का जमघट था—-तम्बाकू मलते चमचे, चाय पीते हुए चमचे, सोते हुए चमचे, बहस करते चमचे, मस्का लगाते हुए चमचे। दीवारों से तरह तरह की इबारतों वाली तख्तियां टिकीं थीं—-‘नन्दू बाबू की जीत आपकी जीत है’, ‘नन्दू बाबू को जिताकर प्रजातंत्र को मज़बूत कीजिए।’

एकाएक नन्दू बाबू के सामने उनकी पत्नी, आठ साल के बेटे का हाथ थामे प्रकट हुईं। उनके मुखमंडल पर आक्रोश का भाव था। चमचों से घिरे पति को संबोधित करके बोलीं, ‘सुनो जी, तुमने इन छोटे आदमियों को खूब सिर चढ़ा रखा है। उस दो कौड़ी के हरिदास के लड़के ने बल्लू को मारा है।’

नन्दू बाबू उठकर पत्नी के पास आये। मीठे स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करती हो गुनवन्ती? वक्त की नज़ाकत को पहचानो। तुम राजनीतिज्ञ की बीवी होकर ज़रा भी राजनीति न सीख पायीं। यह वक्त इन बातों पर ध्यान देने का नहीं है।’

इतने में एक चमचे ने खबर दी कि बाहर हरिदास खड़ा है। नन्दू बाबू बाहर गये। हरिदास दुख और ग्लानि से कातर हो रहा था। बोला, ‘बाबूजी, लड़के से बड़ी गलती हो गयी। उसने छोटे बबुआ पर हाथ उठा दिया। लड़का ही तो है, माफ कर दो।’

नन्दू बाबू हरिदास की बाँहें थामकर प्रेमपूर्ण स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हो हरिदास? उन्नीसवीं सदी में रह रहे हो क्या? अब कौन बड़ा और कौन छोटा? सब बराबर हैं। और फिर बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं। उनकी बात का क्या बुरा मानना?’

चुनाव का परिणाम निकला। नन्दू बाबू चारों खाने चित्त गिरे। सब मौसमी चमचे फुर्र हो गये। स्थायी चमचे दुख में डूब गये। घर में मनहूसी का वातावरण छा गया।

परिणाम निकलने के दूसरे दिन हरिदास अपने घर में लेटा आराम कर रहा था कि गली में भगदड़ सी मच गयी। इसके साथ ही कुछ ऊँची आवाज़ें भी सुनायी पड़ीं। उसके दरवाज़े पर लट्ठ का प्रहार हुआ और नन्दू बाबू की गर्जना सुनायी पड़ी, ‘बाहर निकल, हरिदसवा! तेरे छोकरे की यह हिम्मत कि मेरे लड़के पर हाथ उठाये?’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments