(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – महानगर।)
कविता – महानगर
बड़ा
और बड़ा
होता जा रहा है
शहर , सारी सीमाएं तोड़ते हुए
नगर , निगम,पालिका , महानगर से भी बड़ा
इतना बड़ा कि छोटे बड़े करीब के गांव , कस्बे
सब लीलता जा रहा है महानगर ।
ऊंचाई में बढ़ता जा रहा है
आकाश भेदता ।
सड़कों के ऊपर सड़के
जमीन के नीचे दौड़ती
मेट्रो
भीतर ही भीतर मेट्रो स्टेशन
भागती भीड़
दौड़ती दुनिया
विशाल और भव्य ग्लोइंग साइन बोर्ड
पर
कानों में हेडफोन
मन में तूफान
अपने आप में सिमटते जा रहे लोग
© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
न्यूजर्सी , यू एस ए
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈