श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “साध्य और साधन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ जान – पहचान ☆
कितनी बार कहा, मुझे आनन्द नहीं खुशी चाहिए। बस इसी खुशी के मोह में अधिकांश लोग घर में रहकर,आरामदायक स्थिति में ख्याली पुलाव पकाते रह जाते हैं। जब अपनी गलती अहसास होता है तो बोरिया बिस्तर समेट कर चल देते हैं। घर को त्यागना अर्थात आराम को छोड़ना; परिक्रमा का मार्ग जहाँ अहंकार का त्याग कर प्रकृति प्रदत्त दिव्य शक्तियों से जोड़ता है वहीं पैदल चलना आपको साहसी बनाने के साथ- साथ श्रेष्ठ चिंतक भी बनाता है। राह में जो मिले उसे स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना, जगह- जगह का भोजन, पानी, लोग, संस्कृति सबको आत्मसात करते हुए लक्ष्य तक पहुँचने में जो समय लगता है, उसे व्यर्थ नहीं कहा जा सकता है। जब आप सीखने की चाहत को लेकर आगे बढ़ते हैं तो मंजिल पर पहुँचने की कोई जल्दी नहीं रहती। हर पल को जीना अपने आप में स्वयं को पहचानने जैसा होने लगता है। जिसने खुद को जाना उसने सारे जगत को जान लिया।
कहते हैं, आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ते हुए विनम्रता से सब कुछ पाया जा सकता है। सत्संग, रंग, संग, कुसंग, प्रसंग, अंग, प्रत्यंग, जंग, भंग, उमंग, तरंग, बेढंग ये सब केवल तुकांत नहीं है, जीवन की शैली है, जिसे समझने हेतु पथ पर चलना ही पड़ता है।
जिसने सहजता के साथ आगे बढ़ने को अपना लिया वो देर- सवेर सही शिखर पर विराजित अवश्य होगा। स्वयं को समझने का सबसे बड़ा लाभ ये होता है कि जीतने हारने के बीच का फर्क मिट जाता है बस व्यक्ति समाज कल्याण में ही सर्वस्व लुटा देने की चाहत रखता है। सबको जोड़ते हुए आगे बढ़ते रहें, टीमवर्क का रिजल्ट आशानुरूप से भी अधिक होता है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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