डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है नई पीढ़ी और वरिष्ठ पीढ़ी की अपेक्षाओं के बीच ‘सौभाग्य’ और ‘दुर्भाग्य’ के अनुभवों को परिभाषित करती एक विचारणीय कहानी  ‘नसीबों वाले ’ इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 172 ☆

☆ कहानी ☆ नसीबों वाले

(लेखक के कथा- संग्रह ‘जादू-टोना’ से)

अरविन्द जी अब घर में पत्नी के साथ अकेले हैं। दोनों बेटे अमेरिका में हैं और बेटी- दामाद बेंगलोर में। अरविन्द जी ने बेटों की सलाह पर सुरक्षा की दृष्टि से घर की चारदीवारी ऊँची करा ली है। अब घर के उस पार का कुछ नहीं दिखता। आकाश कुछ छोटा हो गया और आदमियों की शक्लें अब कम दिखती हैं, लेकिन क्या कीजिएगा? बेटों ने कहा, ‘गेट में ताला लगा कर भीतर निश्चिंत होकर रहिए। ‘ लेकिन दूसरा पक्ष यह है कोई दीवार फाँद कर आ जाए तो भीतर निश्चिंत होकर फजीहत कर सकता है।

दो साल से एक नेपाली लड़का मदद के लिए रख लिया था, लेकिन वह पन्द्रह दिन पहले देस गया तो लौट कर नहीं आया। उसके बाप का फोन आया था कि नक्सलवादियों की वजह से गाँव में रहना मुश्किल हो रहा है, फौरन आओ। अब पता नहीं वह लौटकर आएगा या नहीं। अरविन्द जी की पत्नी धीरे-धीरे घर का काम निपटाती रहती हैं। रिटायर्ड होने के कारण अरविन्द जी को किसी काम की जल्दी नहीं रहती। जल्दी काम निपटा कर बाकी समय बोर होने से क्या फायदा? काम जितना लंबा खिंच सके उतना अच्छा। इसलिए वे यथासंभव पत्नी को घर के कामों में सहयोग देते रहते हैं।

अरविन्द जी ने अपने बच्चों का कैरियर बनाने के लिए खूब तपस्या की। घर में सख्त अनुशासन लागू किया। शाम को सात से साढ़े आठ तक पढ़ने का पक्का टाइम। अरविन्द जी बच्चों के कमरे में केशर वाला दूध और फलों के स्लाइस रखकर बाहर से ताला लगा देते और खुद चौकीदार बनकर बाहर बैठ जाते। साढ़े आठ बजे तक न कोई कमरे में जाएगा, न कोई बाहर आएगा। हासिल यह हुआ कि उनके बच्चे परीक्षा में अच्छे अंकों से पास होते रहे।

खेल-कूद में हिस्सा लेने की उन्हें इजाज़त थी लेकिन एक सीमा तक। खेल सकते हैं लेकिन पढ़ाई के समय पर असर न पड़े। दूसरी बात यह कि इतने थकाने वाले खेल नहीं खेलना है कि घर लौटने पर पढ़ना-लिखना मुश्किल हो जाए। हल्के- फुल्के खेल खेले जा सकते हैं, लेकिन फुटबॉल हॉकी नहीं। जिन्हें स्पोर्ट्समैन का कैरियर बनाना हो वे ये थकाने वाले खेल खेलें। बच्चों के सोने का समय साढ़े नौ बजे था और सवेरे उठने का छः बजे। इस समय-चक्र में कोई व्यतिक्रम संभव नहीं था।

बच्चों पर अरविन्द जी के अनुशासन का आलम यह था कि एक बार उन्होंने बड़े बेटे अनन्त के एक दोस्त के घायल हो जाने पर भी उसे रात को जगाने से साफ मना कर दिया था। तब अनन्त एम.बी.बी.एस. पास कर ‘इंटर्नशिप’ कर रहा था। उसका दोस्त रात को दस ग्यारह बजे सड़क पर किसी वाहन की टक्कर से घायल हुआ। दोस्त दौड़े दौड़े अनन्त के पास आये कि उसकी मदद से अस्पताल में उचित चिकित्सा और ज़रूरी सुविधाएँ मिल जाएंगीं। लेकिन अरविन्द जी चट्टान बन गये। बोले, ‘अनन्त सो गया है। अब उसे जगाया नहीं जा सकता। ‘

उनका उत्तर सुनकर अनन्त के दोस्त भौंचक्के रह गये। बोले, ‘आप उसे एक बार बता तो दें, अंकल। वह खुद आ जाएगा। सवेरे उसे अफसोस होगा कि हमने उसे बताया क्यों नहीं। दीपक को काफी चोट लगी है। ‘

अरविन्द जी ने बिना प्रभावित हुए तटस्थ भाव से उत्तर दिया, ‘मैं समझता हूँ। आई एम सॉरी फॉर द बॉय, लेकिन अनन्त को जगाया नहीं जा सकता। नींद पूरी न होने पर दूसरे दिन का पूरा शेड्यूल गड़बड़ हो जाता है। बच्चों का कैरियर सबसे ज्यादा इंपॉर्टेंट है। आप टाइम वेस्ट न करें। लड़के को जल्दी किसी अच्छे अस्पताल में ले जाएँ। मैं सवेरे अनन्त को ज़रूर बता दूँगा। ‘

दूसरे दिन अनन्त को घटना का पता चला। वह अपने पिता को जानता था, इसलिए तकलीफ होने पर भी उसकी हिम्मत शिकायत करने की नहीं हुई।

अरविन्द जी की मेहनत और उनका अनुशासन रंग लाया और उनके तीनों बच्चे डॉक्टर बन गये। अब अरविन्द जी ज़िन्दगी में सुस्ताने के हकदार हो गए थे। कुछ दिनों में अवसर पाकर दोनों बेटे अमेरिका का रुख कर गये और बेटी की शादी बेंगलोर में बसे एक डॉक्टर से हो गयी। अरविन्द जी ने इतना ज़रूर सुनिश्चित किया कि बेटों की शादियाँ भारत में ही हों।

बेटों के उड़ जाने के बाद घर में अरविन्द जी और उनकी पत्नी अकेले रह गये। घर को छोड़कर लंबे समय तक बाहर रहा भी नहीं जा सकता था और घर को बेचकर भारत में अपनी जड़ें खत्म कर लेने का फैसला भी मुश्किल था।

हर साल दो-साल में अरविन्द जी बेटों के पास अमेरिका जाते रहते थे, लेकिन वहाँ उनका मन नहीं लगता था। उस देश की आपाधापी वाली ज़िन्दगी उन्हें रास नहीं आती थी। बेटे-बहू के घर पर न रहने पर कोई ऐसा नहीं मिलता था जिसके साथ बेतकल्लुफी से बातें की जा सकें।

पहली बार अनन्त के पास जाने पर अरविन्द जी को एक अजीब अनुभव हुआ। हर रोज़ शाम को वे देखते थे कि अनन्त के ऑफिस से लौटने के समय बहू काफी देर तक फोन पर व्यस्त रहती थी। पूछने पर मालूम हुआ कि अनन्त ऑफिस में इतना थक जाता था कि वापस कार चलाते समय कई बार उसे झपकी लग जाती थी। दो तीन बार एक्सीडेंट हुआ, लेकिन ज़्यादा हानि नहीं हुई। अब अनन्त के ऑफिस से रवाना होते ही बहू फोन लेकर बैठ जाती थी और उसे तब तक बातों में लगाये रहती थी जब तक वह घर न पहुँच जाए। यह देख कर अरविन्द जी के दिमाग में कई बार यह प्रश्न कौंधा कि ऐसी ज़िन्दगी और ऐसी कमाई की क्या सार्थकता है? लेकिन उन्हें वहाँ सब तरफ ऐसी ही भागदौड़ और बदहवासी दिखायी पड़ती थी।

अब और भी कई प्रश्न अरविन्द जी से जवाब माँगने लगे थे। एक दिन भारत में ‘ब्रेन ड्रेन’ पर एक लेख पढ़ा जिसमें लेखक ने शिकायत की थी कि इस गरीब मुल्क में एक डॉक्टर की ट्रेनिंग पर पाँच लाख रुपये से ज़्यादा खर्च होता है और फिर वे यहाँ के गरीब मरीज़ों को भगवान भरोसे छोड़कर अमीर मुल्कों के अमीर मरीज़ों की सेवा करने विदेश चले जाते हैं। लेखक ने लिखा था कि विदेश जाने वाले डॉक्टरों से उन पर हुआ सरकारी खर्च वसूला जाना चाहिए।

लेख को पढ़कर अरविन्द जी कुछ देर उत्तेजित रहे, फिर उन्होंने खुद को समझा लिया। अपने आप से कहा, ‘आदमी अपनी तरक्की नहीं ढूँढ़ेगा तो क्या यहाँ झख मारेगा? सब बकवास है, कोरा आइडियलिज़्म। ‘

अगली बार जब छोटा बेटा असीम भारत आया तो एक दिन बात बात में उन्होंने उससे उस लेख की बात की। असीम की प्रतिक्रिया थी— ‘रबिश! आदमी एजुकेशन के बाद बैस्ट अपॉर्चुनिटी नहीं लेगा तो क्या करेगा? जब बाहर अच्छे चांसेज़ हैं तो यहाँ क्यों सड़ेगा? पाँच लाख रुपये लेना हो तो ले लें। नो प्रॉब्लम। लेकिन हम तो वहीं जाएँगे जहाँ हमारे एडवांसमेंट की ज़्यादा गुंजाइश है। ‘

इस सारी उपलब्धि के बावजूद अरविन्द जी को घर का सूनापन कई बार ऐसा काटता है कि वे खीझकर पत्नी से कह बैठते हैं— ‘ऐसी तरक्की से क्या फायदा! अब हम यहांँ अकेले बैठे हैं और हमारी सुध लेने वाला कोई नहीं। परिन्दों की तरह पर निकले और उड़ गये। कुल मिलाकर क्या हासिल है?’

उनकी पत्नी सहानुभूति में हँसती है, कहती है, ‘आप की लीला कुछ समझ में नहीं आती। जब बच्चे यहाँ थे तब आप उनके कैरियर के पीछे पागल थे। अब वे अपने कैरियर की तलाश में निकल गये तो आप हाय-तौबा मचा रहे हैं। आपको किसी तरह चैन नहीं है। ‘

कई बार वे अपनी ऊँची चारदीवारी से बेज़ार हो जाते हैं, कहते हैं, ‘यह ऊँची चारदीवारी भी हमारी दुश्मन बन गयी है। पहले आदमी की शक्ल दिख जाती थी, कोई परिचित निकला तो सलाम-दुआ हो जाती थी, पड़ोसियों के चेहरे दिख जाते थे। अब इस ऊँची दीवार और गेट ने वह सब  छीन लिया। दीवार से सिर मारते रहो। ऐसी सुरक्षा का क्या मतलब? जिनको अब मरना ही है उनकी सुरक्षा की फिक्र हो रही है। ‘

रिश्तेदारों का उनके यहाँ आना जाना बहुत सीमित रहा है। वजह रही है अरविन्द जी की रुखाई और उनकी अनुशासन-प्रियता। कोई भी उनके हिसाब से गलत समय पर आ जाए तो ‘यह भी कोई आने का समय है?’ कहने में उन्हें संकोच नहीं होता था। अपनी स्पष्टवादिता और सख़्ती के लिए वे बदनाम रहे। इसीलिए उनके बेटों के दोस्त हमेशा उनके घर आने से कतराते रहे।

फिर भी उनकी किस्मत से रश्क करने वालों की संख्या काफी बड़ी है। दोनों बेटे अमेरिका में और बेटी भी अच्छे घर में— एक सफल ज़िन्दगी की और क्या परिभाषा हो सकती है? उनसे मिलने जो भी परिचित आते हैं उनकी आँखें उनके बेटों की सफलता की गाथा सुनकर आश्चर्य और ईर्ष्या से फैल जाती हैं। कई उनके बेटों की प्रशंसा करने लगते हैं तो कई अपने नाकारा बेटों को कोसने लगते हैं।

अरविन्द जी के थोड़े से दोस्तों में एक बख्शी जी हैं। स्कूल में साथ पढ़े थे। तभी से दोस्ती कायम है। लेकिन संबंध बने रहने का श्रेय बख्शी जी को ही दिया जाना चाहिए क्योंकि वे अरविन्द जी की बातों के कड़वेपन से विचलित नहीं होते। जब मर्जी होती है गप लगाने के लिए आ जाते हैं और जब तक मर्जी होती है, जमे रहते हैं। चाय-नाश्ते की फरमाइश करने में संकोच नहीं करते।

बख्शी जी का स्थायी राग होता है अरविन्द जी के बेटों की उपलब्धियों की प्रशंसा करना और अरविन्द जी को परम सौभाग्यशाली सिद्ध करना। उनका अपना इकलौता बेटा शहर में ही नौकरी करता है और उन्हीं के साथ रहता है। बख्शी जी शिकायत करते हैं— ‘अपनी किस्मत देखो। इस उम्र में भी गृहस्थी की आधी ज़िम्मेदारियाँ मेरे सिर पर रहती हैं। बेटा ड्यूटी पर रहता है और बहू मुझे कोई न कोई काम पकड़ाती  रहती है। कभी सब्ज़ी लाना है तो कभी पोते को स्कूल छोड़ना है। तुम सुखी हो, सब ज़िम्मेदारियों से बरी हो गये। ज़रूर पिछले जन्म के पुण्यकर्मों का सुफल पा रहे हो। ‘

पहले ये बातें सुनकर अरविन्द जी गर्व से फूल जाते थे, अब इन बातों से उन्हें चिढ़ होने लगी है।

अगली बार जब बख्शी जी ने उनके सौभाग्य की बात छेड़ी तो अरविन्द जी उन्हें बीच में ही रोक कर बोले, ‘अब ये सौभाग्य और दुर्भाग्य की बातें करना बन्द कर दो भाई। मुझे अच्छा नहीं लगता। तुम्हारा दुर्भाग्य है कि जब तुम मरोगे तो तुम्हारा बेटा और बहू तुम्हारे सामने होंगे, और मेरा सौभाग्य है कि हम दोनों में से किसी के भी मरते वक्त हमारे बेटे हमारे सामने नहीं होंगे। यह लगभग निश्चित है। सौभाग्य दुर्भाग्य की परिभाषा आसान नहीं है। बैठकर गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि सौभाग्य क्या है और दुर्भाग्य क्या। चीज़ की कीमत तभी पता लगती है जब चीज़ हाथ से छूट जाती है। ‘

अरविन्द जी की बात बख्शी जी के पल्ले नहीं पड़ी। अलबत्ता उन्हें कुछ चिन्ता ज़रूर हुई। अरविन्द जी से तो उन्होंने कुछ नहीं कहा, बाद में उनकी पत्नी से बोले, ‘ये कुछ बहकी बहकी बातें कर रहे हैं, भाभी। लगता है बुढ़ापे का असर हो रहा है। इस उम्र में कभी-कभी ‘डिप्रेशन’ होना स्वाभाविक है। इन्हें डॉक्टर को दिखा कर कुछ विटामिन वगैरह दिलवा दीजिए। ठीक हो जाएँगे। ‘

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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