श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय  आलेख  “राजनीति…“।)   

☆ आलेख # 62 – राजनीति  – 1 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

राजनीति अपने शैशवकाल में सामाजिक मुद्दों और स्वाभाविक नेतृत्व के संयोग से आगे बढ़ती है. अपना समय और अपनी जमापूँजी को देकर इसमें ऐसे लोग आते हैं जिन्हें अपनी आर्थिक सुरक्षा और निश्चिंत भविष्य से ज्यादा परवाह समाज और देश- दुनिया के वर्तमान को सुधार कर और कुछ मायनों में बदलकर भी उनके बेहतर भविष्य को सुनिश्चित करने की होती है. इन्हें सोशल इंजीनियरिंग के अभियंता भी कहा जा सकता है और सामाजिक अस्वस्थता का इलाज करने वाले डॉक्टर भी. ये उन्हें भी ठीक करने की कोशिश करते हैं जो हमेशा इस भ्रम में बने रहना चाहते हैं कि “हमें तो कुछ हुआ ही नहीं है, हम तो पूरी तरह ठीक हैं तो डॉक्टर साहब या इंजीनियर साहब, आपकी इलाज रूपी मुफ्त सलाहों की हमें जरूरत ही नहीं है, निश्चिंत रहिए कि हम आपके बहकावे में आने वाले नहीं हैं.”

ऐसे लोग मनोरोगियों के समान ही व्यवहार करते हैं कि उनसे ज्यादा तो उनके परामर्शदाता को खुद के इलाज की जरूरत है. बहुतायत में पाये जानेवाले इन लोगों के नज़रिये से तो वैचारिक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से बेहतर तो पराधीनता की सौगात के साथ मिली आर्थिक निश्चिंतता और शान शौकत, रौब दाब पाना ज्यादा व्यवहारिक और सुरक्षित होता है. ये वही लोग होते हैं जिनके लिये राजनीति तो अपना घर फूंककर तमाशा देखने जैसा है.

अतः इस दौर की राजनीति और ऐसे नेतृत्व गुण से संपन्न लोग बहुत दुर्लभ हुआ करते थे और “नेताजी” जैसा उपनाम और उपाधि “नेताजी सुभाषचंद्र बोस” जैसे महान और उच्चतम कद वाले ही पाते थे. ये दौर राजनीति का स्वर्णिम दौर था जो नैतिक मूल्य, त्याग, साहस और बलिदान के शाश्वत स्तंभों पर सुदृढ़ता के साथ खड़ा था. इस दौर में उनका साथ देने वाले भी उनके लक्ष्यों के प्रति समर्पित हुआ करते थे और इस यात्रा में नेतृत्व के प्रति निष्ठा और विश्वास भी बहुत बड़ी भूमिका का निर्वहन किया करता था. नेता और अनुयायी निज स्वार्थ से परे हुआ करते थे और बहुजन हिताय बहुजन सुखाय के लिये काम करते थे.

राजनीति के बदलते दौरों की समीक्षा अगले भाग में  

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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