(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री दामिनी खरे जी द्वारा लिखित काव्य संग्रह “अर्घ…” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 127 ☆
☆ “अर्घ, कविता संग्रह” – सुश्री दामिनी खरे ☆ चर्चाकार – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’’ ☆
पुस्तक चर्चा
अर्घ, कविता संग्रह
दामिनी खरे
आवरण.. यामिनी खरे
प्रकाशक … कृषक जगत, भोपाल
काव्य रचनाओ को गहराई से समझने के लिये वांछित होता है कि रचनाकार के व्यक्तित्व, उसके परिवेश, व कृतित्व का किंचित ज्ञान पाठक को भी हो, जिससे परिवेश के अनुकूल लिखित कविताओं को पाठक उसी पृष्ठभूमि से हृदयंगम कर आनन्द की वही अनुभूति कर सके, जिससे प्रेरित होकर लेखक के मन में रचना का प्रादुर्भाव हुआ होता है. शायद इसीलिये किताब के पिछले आवरण पर रचनाकार का परिचय प्रकाशित किया जाता है. प्रस्तुत कृति अर्घ का आवरण चित्र प्रसिद्ध अव्यवसायिक महिला चित्रकार यामिनी खरे ने बनाया है, छोटे छोटे चित्रों से बना कोलाज ठीक वैसे ही हमारी संस्कृति के विभिन्न आयाम मुखरित करता है जैसे शब्द चित्र किताब की कविताओं से अभिव्यक्त होते हैं । आत्मकथ्य में कवियत्री ने लिखा है की उनके रचनात्मक व्यक्तित्व पर उनके पिता की छाप है, मैंने स्व वासुदेव प्रसाद खरे जी की देवयानी सहित कुछ रचनाएँ सूक्ष्म दृष्टि से पढ़ी हैं, मैं कह सकता हूँ की दामिनी जी की लेखनी में पिता की प्रति छाया शैली, छंद विधान, शब्द सागर में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। भारतीय सामाजिक परिवेश में अनेक महिलाएं विलक्षण व्यक्तित्व रखती हैं किन्तु विवाह के उपरांत परिवार, बच्चो तथा पति के साथ कदमताल करते हुए उनका निजी व्यक्तित्व शनैः शनैः कहीं खो जाता है, दामिनी जी जैसी बिरली महिलाये ही अपने भीतर उस क्षमता को दीर्घ काल तक सुशुप्त रहते हुए भी प्राणवान बनाये रख पाती हैं।
उन्होंने लिखा ही है
“करके अपना ही पिंड दान, बन दीप शिखा जलती जाती “, बेटियां शीर्षक से लिखी गई यह कविता उनका भोगा हुआ यथार्थ है। उनके सुपुत्र ने लैंडमार्क के बहाने उनकी लेखन प्रतिभा को पुनः जागृत करने में भूमिका निभाई, और लेखिका संघ के व्हाट्स अप ग्रुप ने वह धरातल दिया जहां बचपन से अब तक के उनके संवेदनशील मन ने जो मानस चित्र बना रखे थे वे शब्दों का रूप लेकर कागज पर उभर सके। पिता के काव्य संस्कारो को पति का साथ मिला और यह किताब हिंदी जगत को मिल सकी । छोटी छोटी सधी हुई, गंभीर, उद्देश्यपूर्ण,समय समय पर लिखी गईं और डायरी में संग्रहित रचनाओं के पुस्तकाकार प्रकाशन से साहित्य के प्रति अपनी एक जिम्मेदारी पूरी कर लेखिका ने उस प्रसव पीड़ा से मुक्ति पाने की कोशिश की है जिसकी छटपटाहट उनमें कविताओं के लेखन काल से रही होगी.कविताओ में शाश्वत तथ्य मुखरित हुए हैं। यथा..
“ सुख दुःख में गोते लगाना है जीवन, हर पल ख़ुशी से बिताना है जीवन “
संग्रह में कुल ६१ कविताये हैं, प्रकृति, नारी, राष्ट्र, लोकचेतना, समाज जैसे विषयों पर कलम उठाई गई है। मैं लेखिका की कलम की उसी यात्रा में अपने आप को सहगामी पाता हूं, जिसमें कथित पाठक हीनता की विडम्बना के बाद भी प्रायः रचनाकार समर्पण भाव से लिख रहे हैं,स्व प्रकाशित कर, एक दूसरे को पढ़ रहे हैं. नीलाम्बर पर इंद्रधनुषी रंगो से एक सुखद स्वप्न रच रहे हैं. लेखिका चिर आशान्वित हैं, वे मां को इंगित करते हुए लिखती हैं ” धैर्य धरा सा तुमसे सीखा, सीखा कर्म किये जाओ, फल देना ईश्वर के हाथो, तुम केवल चलते जाओ “
बादलों को लक्ष्य कर वे लिखती हैं “कनक कलश से छलक रहे ये वन उपवन को महकाते, नहीं जानते लेना ये बस देना ही देना जाने “
“ जीवन है इक भूल भुलैया, रह ढूँढना रे मन, नई राह पर चलते चलते धैर्य न खोना रे मन “ इन कसी हुई पंक्तियों की विवेचना प्रत्येक पाठक के स्वयं के अनुभव संसार के अनुरूप व्यापक होंगी ही.
धूप का टुकड़ा शीर्षक से एक रचना का अंश है.. ” सुनो संगीत जीवन का, नहीं मालूम क्या हो कल, मुझे भाता है संग इनका, तुम्हें भी रास आएगा” जीवन विमर्श के ये शब्द चित्र बनाते हुये दामिनी जी किसी परिपक्व वरिष्ठ कवि की तरह उनकी लेखनी पर शासन कर रही दिखाई देती है.
अर्घ, पुस्तक की शीर्षक रचना में वे लिखती हैं…
भावना के अर्घ देकर चल मना
लौ प्रकम्पित कर रहा मन अर्चना
पंछियों सी अब गगन में उड़ चली
फलक पर नित नवल करती सर्जना
भारत माता शीर्षक से वे लिख रही हैं ” लेते हैं हम शपथ विश्व मे उन्नत मां का भाल करे, सेवा का प्रण लेकर हम सब सदा स्वार्थ का त्याग करें ” काश कि यही भाव हर भारतीय के मन में बसें तो दामिनी जी की लेखनी सफल हो जावे.
उनका ज्ञान व चिंतन परिपक्व है. एक रचना अंश उधृत है ” नैन कह जाते अकथ कहानी, मुखर ह्रदय की वाणी, शीतल सरिता के स्वर, नैन झरे झर झर “
छंद, शब्द सामर्थ्य, बिम्ब योजना हर दृष्टि से कवितायेँ पठनीय तथा मनन, चिंतन योग्य सन्देश समाहित किये हुए है। अपनी ” मौन स्वर “कविता में वे लिखती हैं ” जिंदगी के इस सफर में त्याग ही अनुगामिनी है,मौन स्वर तू रागिनी है “
प्रत्येक रचना के भाव पक्ष की प्रबलता के चलते आप को इस कृति पढ़ने की सलाह देते हुये मैं आश्वस्त हूं.
चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’
समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार
वर्तमान मे – न्यूजर्सी अमेरिका
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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈