डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है भूख से बाज़ार को जोड़ती एक कविता “भूख जहां है….”। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 23 ☆
☆ भूख जहां है….☆
भूख जहाँ है, वहीं
खड़ा हो जाता है बाजार।
लगने लगी, बोलियां भी
तन की मन की
सरे राह बिकती है
पगड़ी निर्धन की,
नैतिकता का नहीं बचा
अब कोई भी आधार।
भूख जहाँ………….
आवश्यकताओं के
रूप अनेक हो गए
अनगिन सतरंगी
सपनों के बीज बो गए,
मूल द्रव्य को, कर विभक्त
अब टुकड़े किए हजार।
भूख जहाँ……………
किस्म-किस्म की लगी
दुकानें धर्मों की
अलग-अलग सिद्धान्त
गूढ़तम मर्मों की,
कुछ कहते है निराकार
कहते हैं कुछ, साकार।
भूख जहाँ………….
दाम लगे अब हवा
धूप औ पानी के
दिन बीते, आदर्शों
भरी कहानी के,
संबंधों के बीच खड़ी है
पैसों की दीवार।
भूख जहाँ………….
चलो, एक अपनी भी
कहीं दुकान लगाएं
बेचें, मंगल भावों की
कुछ विविध दवाएं,
सम्भव है, हमको भी
मिल जाये ग्राहक दो-चार।
भूख जहाँ है,,………
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर, मध्यप्रदेश
मो. 989326601