श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “सबको साथ लेकर चलना। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 132 ☆

☆ सबको साथ लेकर चलना ☆ 

फूलों के साथ खुशबू, रंग, शेड्स व काँटे रहते हैं। सबका अपना- अपना महत्व होता है। क्या आपने महसूस किया कि जीवन भी इसी तरह होता है जिसमें सभी को शामिल करते हुए चलना पड़ता है। इस सबमें समझौते का विशेष योगदान होता है। जो अपने आपको निखारने में लगा हुआ हो उसे केवल सुख  की चाहत नहीं होनी चाहिए, दुख तो सुख के साथ आएगा ही। हम सबमें संतुष्टि का अभाव होता है, जिसके चलते सफलता और शीर्ष  दोनों चाहिए। प्रतिद्वंद्वी हो लेकिन कमजोर। ताकतवर से दूरी बनकर चलते हुए कहीं न कहीं हम स्वयं को निरीह करते चले जाते हैं। इस तरह कब हम दौड़ से बाहर हो गए पता ही नहीं चलता।

हाँ एक बात जरूर है, मानसिक रूप से कमजोर व्यक्ति दबाब नहीं सह पाते, दूसरों की तारीफ व उपलब्धियों से आहत होकर अपना रास्ता बदल देते हैं। जहाँ के लिए निकले हैं वहाँ तो पहुँचिए। कमजोर मन की यही निशानी है कि वो दूसरों द्वारा संचालित होता है। यदि आप उच्च पद पर विराजित हैं तो सहना आना चाहिए। आग सी तपिश, धूप की तेजी यदि नहीं होगी तो कोई भी आसानी से उल्लू बनाकर चलता बनेगा।

चलने से याद आया जो रास्ते पर चलेगा वो अवश्य ही कुछ न कुछ बनेगा क्योंकि धूल में बहुत ताकत है। धरती मैया का आशीर्वाद समझ कर इसे स्वीकार कीजिए और आगे बढ़ते रहिए। जब सोच सही होगी तो साथी मिलने लगेंगे। आसानी से जो कुछ मिलता है उसमें भले ही चमक दमक हो किन्तु लोगों को उसमें कोई जुड़ाव नहीं दिखता है। जब मन ये तय कर लेता है कि प्रतिदिन इतनी दूरी तो तय करनी ही है, तो असम्भव कुछ नहीं रह जाता। सारा दिमाग का खेल है। किसी को परास्त करना हो तो उसके दिमाग व मनोभावों से खेलिए, यदि उसमें लक्ष्य के प्रति लगन का भाव नहीं होगा तो वो आपसे दूरी बना लेगा। हम जब तक आरामदायक स्थिति से दूर नहीं होंगे तब तक आशानुरूप परिणाम नहीं मिलेंगे।

तरक्की पाने हेतु लोग अपना गाँव, शहर, प्रदेश व देश तक छोड़ देते हैं। बाहर रहकर पहचान बनाना कोई आसान कार्य नहीं होता है। जिसमें जो गुण होता है वो उसे तराश कर आगे बढ़ने लगता है।

अन्ततः यही कहा जा सकता है कि समय का उपयोग करते हुए स्वयं के साथ- साथ सबको सजाते- सँवारते रहें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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