प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक ग़ज़ल – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ काव्य धारा #118 ☆ ग़ज़ल – “यहाँ जो आज हैं नाजिर…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
खुशी मिलती हमेशा सबको, खुद के ही सहारों में।
परेशानी हुआ करती सभी को इन्तजारों में।।
किसी के भी सहारे का, कभी भी कोई भरोसा क्या,
न रह पाये यहाँ वे भी जो थे परवरदिगारों में।।
यहाँ जो आज हैं नाजिर न रह पाएंगे कल हाजिर
बदलती रहती है दुनियां नये दिन नये नजारों में।।
किसी के कल के बारे में कहा कुछ जा नहीं सकता
बहुत बदलाव आते हैं समय के संग विचारों में।।
किसी के दिल की बातों को कोई कब जान पाया है?
किया करती हैं बातें जब निगाहें तक इशारों में।।
बड़ा मुश्किल है कुछ भी भाँप पाना थाह इस दिल की
सचाई को छुपायें रखता है जो अंधकारों में।।
हजारों बार धोखे उनसे भी मिलते जो अपने हैं
समझता आया दिल जिनको कि अपने जाँनिसारों में।।
भला इससे यही है अपने खुद पै भरोसा करना
बनिस्बत बेवजह होना खड़े खुद बेकरारों में।।
जो अपनी दम पै खुद उठ के बड़े होते हैं दुनिया में
उन्हीं को मान मिलता है चुनिन्दा कुछ सितारों में।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी भोपाल ४६२०२३
मो. 9425484452
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈